२. सम्भव है कि तुम द्वैतवादी हो और मैं अद्वैतवादी। सम्भव है कि तुम अपने को भगवान् का नित्य दास समझते हो और दूसरा यह कहे कि मुझमें और भगवान् में कोई अन्तर नहीं है, पर दोनों ही हिन्दू हैं और सच्चे हिन्दू हैं। यह कैसे सम्भव हो सका है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए उसी महावाक्य का स्मरण करो – एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति। (५/१३)
३. हिन्दू मन की यह एक विशेषता है कि वह सदैव अंतिम संभाव्य सामान्यीकरण के लिए अनुसन्धान करता है, और बाद में विशेष पर कार्य करता है।
वेद में यह प्रश्न पूछा गया है, कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति? – ‘ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है?” इस प्रकार, हमारे जितने शास्त्र हैं, जितने दर्शन हैं, सबके सब उसीके निर्णय में लगे हुए हैं, जिनके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। (१/५९,६०)
४. हिन्दू लोग साहसी थे और उन्हें इस बात का श्रेय देना चाहिए कि वे अपने सभी विचारों को बड़े साहस के साथ सोचते थे – इतने साहस के साथ कि उनके विचार की एक चिनगारी मात्र से पश्चिम के तथाकथित साहसी तत्त्ववेत्ता डर जाते हैं! इन आर्य मनीषियों के सम्बन्ध में प्रोफेसर मैक्स मूलर ने यह ठीक ही कहा है कि ये लोग इतनी अधिक ऊँचाई तक चढ़े, जहाँ केवल उनके ही फेफड़े साँस ले सकते थे, दूसरों के फेफड़े तो इतनी ऊँचाई में फट गये होते! जहाँ भी बुद्धि ले गयी, इन धीर पुरुषों ने उसका अनुरागपूर्वक अनुसरण किया – उसके लिए कोई त्याग उठा न रखा। सम्भव था कि इससे उनके हृदय के चिरपोषित अन्धविश्वास चूर चूर हो जाते, पर उन्होंने इसकी परवाह न की; यह भी परवाह न की कि समाज उनके सम्बन्ध में क्या सोचेगा, क्या कहेगा! वे तो साहसी थे। उन्होंने जिसे ठीक और सत्य समझा, उसीकी चर्चा की और प्रचार किया। (१/२४३)
५. प्राचीन हिन्दू लोग अद्भुत पण्डित थे – मानो जीवित विश्वकोष! वे कहते थे – ‘विद्या यदि किताबों में ही रहे और धन यदि दूसरों के हाथ में रहे, तो कार्यकाल उपस्थित होने पर वह विद्या भी विद्या नहीं है और वह धन भी धन नहीं है।’(१) (७/५०)
६. हिन्दू धर्म में एक राष्ट्रीय भाव देखने को मिलेगा – वह है आध्यात्मिकता। और किसी धर्म में – संसार के किन्हीं अन्य धर्मग्रंथों में ईश्वर की परिभाषा करने में इतनी अधिक शक्ति लगायी गयी हो, ऐसा देखने को नहीं मिलता। उन्होंने आत्मा का आदर्श निर्दिष्ट करने की चेष्टा इस प्रकार की है कि कोई पार्थिव संस्पर्श इसको कलुषित नहीं कर सकता। आत्मा दिव्य है, और इस अर्थ से उसमें कभी मानवीय भाव आरोपित नहीं किया जा सकता। (३/१३६)
७. आर्य लोग सदैव अपनी आत्मा में ही ब्रह्म को खोजते रहे हैं। कालान्तर में उन लोगों की यह स्वाभाविक विशेषता बन गयी। और यह विशेषता उनकी कलाओं तथा उनके सामान्यतम व्यवहारों में भी अभिव्यंजित हुई। आज भी जब हम धार्मिक मुद्रा में बैठे किसी व्यक्ति का यूरोपीय चित्र देखते हैं, तो पाते हैं कि चित्रकार ने उसकी आँखों को ऊर्ध्वोन्मुख दिखाया है, मानो वह प्रकृति से बाहर, आकाश की ओर ईश्वर की खोज के लिए देख रहा हो। पर दूसरी ओर भारतवर्ष में धार्मिक प्रवृत्ति को साधक की बन्द आँखों के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, मानो वह अपने भीतर देख रहा हो। (२/२३७)
८. जिस हिन्दू नाम से परिचित होना आजकल हम लोगों में प्रचलित है, इस समय उसकी कुछ भी सार्थकता नहीं है, क्योंकि उस शब्द का केवल यह अर्थ था – सिन्धुनद के पार बसनेवाले। प्राचीन फ़ारसियों के गलत उच्चारण से यह सिन्धु शब्द ‘हिन्दू’ हो गया है। वे सिन्धुनद के इस पार रहनेवाले सभी लोगों को हिन्दू कहते थे। इस प्रकार हिन्दू शब्द हमें मिला है। फिर मुसलमानों के शासनकाल से हमने अपने आप यह शब्द अपने लिए स्वीकार कर लिया था। (५/१९)
९. तुम हिन्दू हो और इसलिए तुम्हारा यह सहज विश्वास है कि तुम अनन्त काल तक रहनेवाले हो। कभी कभी मेरे पास नास्तिकता के विषय पर वार्तालाप करने के लिए कुछ युवक आया करते हैं। पर मेरा विश्वास है कि कोई हिन्दू नास्तिक नहीं हो सकता। सम्भव है कि किसीने पाश्चात्य ग्रन्थ पढ़े हों और अपने को भौतिकवादी समझने लग गया हो। पर ऐसा केवल कुछ समय के लिए होता है। यह बात तुम्हारे खून के भीतर नहीं है। जो बात तुम्हारी रग रग में रमी हुई है, उसे तुम निकाल नहीं सकते और न उसकी जगह और किसी धारणा पर तुम्हारा विश्वास ही हो सकता है। इसीलिए वैसी चेष्टा करना व्यर्थ होगा। मैंने भी बाल्यावस्था में ऐसी चेष्टा की थी, पर वैसा नहीं हो सकता। (५/१९७)