१. मन आसानी से नहीं जीता जा सकता। हलकी से हलकी उत्तेजना या खतरा आने पर, प्रत्येक छोटी सी घटना उपस्थित होने पर, जो मन तरंगायमान होने लगते हैं, उनकी दशा भला क्या होगी? जब इस प्रकार के विकार मन में उत्पन्न होते हैं, तब महानता और आध्यात्मिकता की चर्चा का क्या प्रयोजन? मन की यह अस्थिर दशा बदलनी ही होगी। हमें स्वयं अपने से पूछना चाहिए कि हमारे ऊपर बाह्य जगत् की कहाँ तक प्रतिक्रिया हो सकती है और अपने बाहर की तमाम शक्तियों के बावजूद कहाँ तक हम अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। जब दुनिया की सारी शक्तियों को हम अपना सन्तुलन बिगाड़ने से रोकने में सफल हो जायँ, तभी हम मुक्त हैं और उसके पूर्व नहीं। वही उद्धार है। (९/१०३)

२. एक परमाणु से लेकर मनुष्य तक, जड़-तत्त्व के अचेतन प्राणहीन कण से लेकर इस पृथ्वी की सर्वोच्च सत्ता – मानवात्मा तक, जो कुछ हम इस विश्व में प्रत्यक्ष करते हैं, वे सब मुक्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। असल में यह समग्र विश्व इस मुक्ति के लिए संग्राम का ही परिणाम है। (३/८१)

३. इस विश्व में हम जो कुछ देखते हैं, उन सबकी जड़ में मुक्तिलाभ की यह चेष्टा ही है। इसीकी प्रेरणा से साधु प्रार्थना करता है और डाकू लूटता है। जब कार्य-विधि अनुचित होती है, तो उसे हम अशुभ कहते हैं और जब उसकी अभिव्यक्ति उचित तथा उच्च होती है, तो उसे हम शुभ कहते हैं। परन्तु दोनों दशाओं में प्रेरणा एक ही होती है, और वह है मुक्ति की चेष्टा। (३/८१)

४. चेतन अथवा अचेतन समस्त प्रकृति का लक्ष्य यह मुक्ति ही है, और जाने या अनजाने सारा जगत् इसी लक्ष्य की ओर पहुँचने का यत्न कर रहा है। किंतु जिस मुक्ति की खोज एक साधु करता है, वह उस मुक्ति से बहुत भिन्न होती है, जिसकी खोज डाकू करता है। साधु जिस मुक्ति को चाहता है, उससे अनन्त अनिर्वचनीय आनन्द का अधिकारी हो जाता है, परन्तु डाकू की इष्ट मुक्ति उसकी आत्मा के लिए दूसरे पाशों की सृष्टि कर देती है। (३/८२)

५. हम कहते हैं कि हमें मुक्ति की ही खोज करनी है, और वह मुक्ति है परमात्मा। यह वही आनन्द है, जो हर वस्तु में निहित है; किन्तु जब मनुष्य उसे किसी ससीम वस्तु में ढूँढ़ता है, तो उसका कण मात्र पाता है। चोर को चोरी करने में वही आनन्द मिलता है, जो भक्त को भगवान् में; किन्तु चोर उस आनन्द का केवल कण मात्र पाता है और साथ ही दुःख का ढेर भी। यथार्थ आनन्द परमात्मा है। ईश्वर आनन्दस्वरूप है, प्रेमस्वरूप है, मुक्तिस्वरूप है; और जो कुछ भी बन्धनकारक है, वह ईश्वर नहीं है। (९/१६६-६७)

६. मनुष्य तो मुक्त ही है, किन्तु उसे इस सत्य को खोजना पड़ेगा। वह प्रति क्षण इसे भूल जाता है। जाने या बिना जाने अपने इस मुक्तस्वरूप को पहचान लेना – यही प्रत्येक मानव का सम्पूर्ण जीवन है। ज्ञानी और अज्ञानी में भेद यही है कि ज्ञानी इसको जान-बूझकर करता है और अज्ञानी बिना जाने। (९/१६७)

७. स्वतंत्रता की कल्पना ही मुक्ति की सच्ची कल्पना है – हर वस्तु से स्वतंत्रता, संवेदनाओं से स्वतंत्रता, चाहे वे सुख की हों या दुःख की, शुभ से और अशुभ से भी। (१०/२५)

८. हम सदा मुक्त हैं, यदि हम केवल इस पर विश्वास भर करें, केवल पर्याप्त श्रद्धा। तुम आत्मा हो, मुक्त और शाश्वत, चिर मुक्त, चिर पवित्र। अभीष्ट श्रद्धा रखो और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे।

हर वस्तु देश, काल, कार्य-कारण से बँधी है। आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से परे है। जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्मा नहीं।

इसलिए अपनी मुक्ति घोषित करो और जो हो, वह बनो – सदा मुक्त, सदा पवित्र। (१०/२५-२६)

९. मुक्ति-लाभ करने के लिए हमें इस विश्व की सीमाओं के परे जाना होगा; मुक्ति यहाँ प्राप्त नहीं हो सकती। पूर्ण साम्यावस्था का लाभ, अथवा ईसाई जिसे ‘बुद्धि से अतीत शान्ति’ कहते हैं, उसकी प्राप्ति इस जगत् में नहीं हो सकती, और न स्वर्ग में अथवा न किसी ऐसे स्थान में जहाँ हमारे मन और विचार जा सकते हैं, जहाँ हम इन्द्रियों द्वारा किसी प्रकार का अनुभव प्राप्त कर सकते हैं अथवा जहाँ हमारी कल्पना-शक्ति काम कर सकती है। इस प्रकार के किसी भी स्थान में हमें मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती, क्योंकि ऐसे सब स्थान निश्चित ही हमारे जगत् के अन्तर्गत होंगे, और यह जगत् देश, काल और निमित्त के बन्धनों से जकड़ा हुआ है। (३/७०-७१)

१०. यदि हम मन एवं इन्द्रियगोचर इस छोटे से जगत् से अपनी आसक्ति हटा लें, तो उसी क्षण हम मुक्त हो जायँगे। बन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है, सारे नियमों के बाहर चले जाना – कार्य-कारणशृंखला के बाहर हो जाना। (३/७१)

११. स्वतन्त्र अवस्था, जहाँ कोई बन्धन नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, प्रकृति नहीं, कुछ ऐसा भी नहीं जो उसमें कोई परिणाम उत्पन्न कर सके – वेदान्त के ईश्वर-सम्बन्धी इन धारणाओं की जड़ में पूर्ण स्वतन्त्रता से उत्पन्न आनन्द व चिरशक्ति के धर्म की यह धारणा सर्वोच्च है। यह स्वातंत्र्य तुम्हारे भीतर है, मेरे भीतर है और यही एकमात्र यथार्थ स्वातंत्र्य है। (२/ २९६)

१२. ईश्वरोपासना, साधु महापुरुषों की पूजा, एकाग्रता, ध्यान और निष्काम कर्म – ये सब मायाजाल को काटकर निकलने के उपाय हैं; किन्तु हमारे भीतर पहले से तीव्र मुमुक्षुत्व रहना चाहिए। जो ज्योति प्रकाशित होकर हमारे हृदयान्धकार को दूर कर देगी, वह तो हमारे भीतर ही है – यह है वह ज्ञान, जो हमारा स्वभाव या स्वरूप है। (यह ज्ञान हमारा ‘जन्मगत स्वत्व’ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वास्तव में हमारा जन्म तो है ही नहीं।) केवल जो मेघ इस ज्ञानसूर्य को आवृत किये हुए हैं, हमें उन्हींको दूर कर देना होगा। (७/१०८)

१३. प्रत्येक धर्म में मुक्ति-लाभ की इस प्रकार चेष्टा की अभिव्यक्ति पायी जाती है। यही सारी नैतिकता की, सारी निःस्वार्थपरता की नींव है। निःस्वार्थपरता का अर्थ है – मनुष्य अपना क्षुद्र शरीर ही है, इस भाव से परे होना। जब हम किसी को कोई सत्-कार्य करते, दूसरों की सहायता करते देखते हैं, तो उसका तात्पर्य यह होता है कि उसे ‘मैं और मेरे’ की सीमित परिधि में आबद्ध करके नहीं रखा जा सकता। स्वार्थपरता से इस बाहर निकल आने की कोई निर्दिष्ट सीमा नहीं है। सारे श्रेष्ठ नीतिशास्त्र यही शिक्षा देते हैं कि सम्पूर्ण निःस्वार्थपरता ही चरम लक्ष्य है। मान लो, किसी मनुष्य ने इस सम्पूर्ण निःस्वार्थपरता को प्राप्त कर लिया, तो फिर उसकी क्या दशा हो जाती है? फिर वह अमुक अमुक नामवाला पहले का क्षुद्र व्यक्ति नहीं रह जाता, वह अनन्त विस्तार प्राप्त कर लेता है। फिर उसका पहले का वह क्षुद्र व्यक्तित्व सदा के लिए नष्ट हो जाता है – अब वह अनन्तस्वरूप हो जाता है, और इस अनन्त विकास की प्राप्ति ही असल में समस्त दार्शनिक एवं नैतिक शिक्षाओं का लक्ष्य है। (३/८२)

१४. हमारी सभी चेष्टाओं का उद्देश्य उत्तरोत्तर स्वाधीन होना है। कारण, पूर्ण स्वाधीनता पाने पर ही हम पूर्णत्व पा सकते हैं। हमें इस बात का ज्ञान हो या न हो, स्वाधीनता पाने की यह चेष्टा ही सभी प्रकार की उपासना-प्रणालियों की भित्ति है। (२/२९२)

१५. मुक्ति ही इस विश्व की प्रेरक है और मुक्ति ही इसका लक्ष्य है। प्रकृति के नियम ऐसी पद्धतियाँ हैं, जिनके द्वारा हम जगदंबा के निर्देशन में, उस मुक्ति तक पहुँचने का संघर्ष करते हैं। मुक्ति के लिए इस विश्वव्यापी संघर्ष की सर्वोच्च अभिव्यक्ति मनुष्य में मुक्त होने की सजग अभिलाषा के रूम में होती है। यह मुक्ति तीन प्रकार से प्राप्त होती है – कर्म, उपासना और ज्ञान से।

(क) कर्म – दूसरों की सहायता करने और दूसरों को प्रेम करने का सतत अविरत प्रयत्न।

(ख) उपासना – प्रार्थना-वन्दना, गुणगान और ध्यान।

(ग) ज्ञान – जो ध्यान से उत्पन्न होता है। (९/३१५-१६)

१६. दार्शनिक रूप से विश्लेषण करने पर हम देखते हैं कि हम स्वतंत्र नहीं हैं। फिर भी, हमारे भीतर यह भाव बना ही रहता है कि हम स्वतंत्र हैं – मुक्त हैं। अब हमें यह समझना है कि यह भाव आता कैसे है। हम देखते हैं कि हममें ये दो प्रेरणाएँ हैं। हमारी बुद्धि बतलाती है कि हमारे प्रत्येक कार्य का कुछ कारण होता है, और साथ ही साथ, प्रत्येक मनःस्पन्दन के साथ हम अपने स्वतंत्र स्वभाव की घोषणा भी कर रहे हैं। इस पर वेदान्त का समाधान यह है कि अन्दर तो स्वतंत्रता है – आत्मा वास्तव में मुक्त है – पर इस आत्मा के कार्य शरीर और मन के द्वारा होते हैं, जो स्वतंत्र नहीं हैं। (९/१६८)

१७. सारी प्रकृति नियम से बँधी है, अपनी ही क्रिया के नियम से; और यह नियम कभी भंग नहीं किया जाय सकता। यदि तुम प्रकृति का नियम भंग कर सको, तो एक क्षण में सारी प्रकृति नष्ट हो जाय। फिर प्रकृति ही न रहे। जो मुक्ति पाता है, प्रकृति का नियम तोड़ता है। उसके लिए प्रकृति पीछे हट जाती है और प्रकृति की शक्ति उस पर नहीं रहती। प्रत्येक व्यक्ति नियम को भंग करेगा, केवल एक बार और सदा के लिए; और इस प्रकार उसका प्रकृति के साथ संघर्ष समाप्त हो जायगा। (१०/३१)

१८. हिन्दूओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य है – सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना; और ईश्वर को इसी प्रकार प्राप्त करना, उसके दर्शन कर लेना, उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना – हिन्दुओं का धर्म है।

और जब मनुष्य पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है, तब उसका क्या होता है? तब वह असीम परमानन्द का जीवन व्यतीत करता है। जिस एकमात्र वस्तु में मनुष्य को सुख पाना चाहिए, उसे अर्थात् ईश्वर को पाकर वह परम तथा असीम आनंद का उपभोग करता है और ईश्वर के साथ भी परमानन्द का आस्वादन करता है। (१/१५)

१९. हमें अवश्य स्मरण रखना चाहिए कि हमारा धर्म स्पष्ट रूप से यह कह रहा है कि जो कोई मुक्ति-प्राप्ति की इच्छा रखे, उसे ही इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। यही मुक्ति हैं और यही हमारे शास्त्रों के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त। (५/१७७)

२०. मानसिक और भौतिक सभी विषयों से आत्मा को पृथक् कर लेना ही हमारा लक्ष्य है। इस लक्ष्य के प्राप्त हो जाने पर आत्मा देखती है कि वह सर्वदा ही एकाकी रही है और उसे सुखी बनाने के लिए अन्य किसीकी आवश्यकता नहीं। जब तक अपने को सुखी बनाने के लिए हमें अन्य किसीकी आवश्यकता होती है, तब तक हम दास हैं। जब ‘पुरुष’ जान लेता है कि वह मुक्त है, उसे अपनी पूर्णता के लिए अन्य किसीकी आवश्यकता नहीं, एवं यह प्रकृति नितान्त अनावश्यक है, तब कैवल्यलाभ हो जाता है। (९/१८३)

२१. वेदान्त शिक्षा देता है कि निर्वाण-लाभ यहीं और अभी हो सकता है, उसके लिए हमें मृत्यु की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। निर्वाण का अर्थ है आत्म-साक्षात्कार कर लेना; और यदि एक बार भी, वह चाहे क्षण भर के लिए ही क्यों न हो, हमें यह अवस्था प्राप्त हो गयी, तो फिर कभी भी हम व्यक्तित्व की भ्रांति से विमोहित न हो सकेंगे। हमारे चक्षु हैं, अतः हम प्रतीयमान वस्तु को ही देखते हैं, पर हमने इसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है और हमें सदैव यह ज्ञान रहता है कि वह है क्या; हमने उसके वास्तविक स्वरूप को जान लिया है। यह वह आवरण है, जिसने अपरिणामी आत्मा को ढक रखा है। आवरण खुल जाता है और तब हम इसके पीछे अवस्थित आत्मा को देख पाते हैं। सभी परिवर्तन या परिणाम आवरण में ही होते हैं। साधु पुरुष में यह आवरण इतना महीन होता है कि उसमें आत्मा की हमें स्पष्ट झलक दिखायी पड़ती है; पर पापी में यह आवरण इतना मोटा होता है कि हम इस सत्य में संशय करने लग जाते हैं कि पापी के पीछे भी वही आत्मा है, जो साधु पुरुष के पीछे विद्यमान है। जब सम्पूर्ण आवरण हट जाता है, तब हम देखने लगते हैं कि वास्तव में आवरण का अस्तित्व किसी काल में नहीं था – हम सदैव आत्मा ही थे, अन्य कुछ भी नहीं; यहाँ तक कि आवरण की बात ही भूल जाती है। (९/७४)

२२. यह बात नहीं है कि मुक्त होने पर मनुष्य कर्म करना छोड़ दे और निर्जीव मिट्टी का ढेर बन जाय, प्रत्युत् वह अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक कर्मशील होता है, क्योंकि अन्य लोग तो केवल बाध्य होकर कर्म करते हैं, पर वह स्वतंत्र होकर। (९/७५)

२३. अज्ञान ही मृत्यु है, और ज्ञान जीवन। (३/२८)

२४. मुक्ति का अर्थ है, सम्पूर्ण स्वाधीनता – शुभ और अशुभ, दोनों प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पा जाना। इसे समझना जरा कठिन है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है, और सोने की जंजीर भी एक जंजीर ही है। (३/३१)

२५. मन और शब्दों में खूब दृढ़ता लाओ। ‘मैं हीन हूँ’, ‘मैं दीन हूँ’ ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है। इसीलिए शास्त्रकार ने कहा है –

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।

किवदन्तीति सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥

(अष्टावक्र संहिता॥१।११॥)

जिसके हृदय में मुक्ताभिमान सर्वदा जाग्रत है, वह मुक्त हो जाता है और जो ‘मैं बद्ध हूँ’ ऐसी भावना रखता है, समझ लो कि उसकी जन्मजन्मान्तर तक बद्ध दशा ही रहेगी। ऐहिक और पारमार्थिक दोनों पक्षों में ही इस बात को सत्य जानना। इस जीवन में जो सर्वदा हताशचित्त रहते हैं, उनसे कोई भी कार्य नहीं हो सकता। (६/९६)

२६. मुक्ति का अर्थ है सत्य को जानना। हम कुछ नहीं बनते, जो हैं, वही रहेंगे। श्रद्धा से मुक्ति मिलती है, काम करने से नहीं। यहाँ ‘ज्ञान’ का प्रश्न है। तुमको जानना होगा कि तुम क्या हो, और तब काम समाप्त होगा। (४/१५९)