१. महान् आर्यों ने तथा शेष में बुद्ध ने स्त्री को सदैव पुरुष के बराबर स्थान में रखा हैं। उनके लिए धर्म में लिंगभेद का अस्तित्व न था। वेदों और उपनिषदों में स्त्रियों ने सर्वोच्च सत्यों की शिक्षा दी है और उनको वही श्रद्धा प्राप्त हुई है, जैसी कि पुरुषों को। (६/२७६)

२. बुद्ध ने धर्म में पुरुषों के समान ही स्त्रियों का भी अधिकार स्वीकार किया था, और उनकी अपनी स्त्री ही उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या थीं। वह बौद्ध भिक्षुणियों की अधिनायिका हुई थीं। (७/९२)

३. भारतीय ऋषियों के विवरणों में महिला ऋषियों का भी स्थान है। ईसाई धर्म में सभी पैगम्बर हुए हैं, जब कि भारत के धर्मग्रन्थों में महात्मा स्त्रियाँ एक प्रमुख स्थान रखती हैं। (१/२७२)

४. राजा जनक की सभा में याज्ञवल्क्य से किस प्रकार प्रश्न पूछे गये थे? उनकी मुख्य प्रश्न करनेवाली थी, वाचक्नवी वाग्मी कन्या – ब्रह्मवादिनी, जैसा कि उन दिनों कहा जाता था। वह कहती है, “मेरे प्रश्न एक कुशल धनुर्धर के हाथ में दो चमकदार तीरों के समान है।” उसके नारी होने की चर्चा भी नहीं की गयी है। और फिर, क्या वनों में स्थित हमारे पुरातन विश्वविद्यालयों में लड़कों और लड़कियों की समानता से अधिक पूर्ण कुछ और हो सकता है। हमारे संस्कृत नाटकों को पढ़िए, शकुन्तला की कहानी पढ़िए और देखिए कि क्या टेनीसन की ‘प्रिन्सेज’ हमें कुछ सिखा सकती है?” (४/२६७)

५. “नारी के आर्य और सेमेटिक आदर्श सदा ही एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत रहे हैं। सेमेटिक लोगों में नारी की उपस्थिति भक्ति में बाधक मानी गयी है, और वहाँ वह कोई धार्मिक कृत्य नहीं करती, जैसे कि भोजन के लिए एक पक्षी को मारना तक भी! आर्य लोगों के अनुसार पुरुष कोई भी धार्मिक कृत्य अपनी पत्नी के बिना नहीं कर सकता।” (४/२६६)

६. स्त्रियों की अवस्था को बिना सुधारे जगत् के कल्याण की कोई सम्भावना नहीं है। पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं है।

इस कारण रामकृष्ण-अवतार में ‘स्त्री-गुरु’ को ग्रहण किया गया है, इसीलिए उन्होंने स्त्री के रूप और भाव में साधना की और इस कारण ही उन्होंने जगज्जननी के रूप का दर्शन नारियों के मातृ-भाव में करने का उपदेश दिया। (४/३१७)

७. यदि तुम किसीको सिंह नहीं होने दोगे, तो वह लोमड़ी हो जायगा। स्त्री एक शक्ति है, किन्तु अब इस शक्ति का प्रयोग केवल बुरे विषयों में ही हो रहा है। इसका कारण यह है कि पुरुष स्त्रियों के ऊपर अत्याचार कर रहे हैं। आज स्त्रियाँ लोमड़ी के समान हैं, किन्तु जब उनके ऊपर और अधिक अत्याचार नहीं होगा, तब वे सिंहिनी होकर खड़ी होंगी। (७/३०)

८. किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं के साथ होनेवाला व्यवहार। प्राचीन यूनान में पुरुष और स्त्री की स्थिति में कोई भी अन्तर नहीं था, समानता का विचार प्रचलित था। कोई हिन्दू बिना विवाह किये पुरोहित नहीं हो सकता, आशय यह है कि अविवाहित, एकाकी मनुष्य केवल आधा और अपूर्ण होता है। आदर्श स्त्रीत्व का अर्थ पूर्ण स्वाधीनता है। सतीत्व आधुनिक हिन्दू नारी के जीवन की केन्द्रीय भावना है। पत्नी एक वृत्त का केन्द्र है, जिसका स्थायित्व उसके सतीत्व पर निर्भर है। इसी आदर्श की अति के कारण हिन्दू विधवाएँ जलायी गयीं। हिंदू स्त्रियाँ बहुत ही आध्यात्मिक और धार्मिक होती हैं। कदाचित् संसार की सभी महिलाओं से अधिक। यदि हम उनकी इन सुन्दर विशिष्टताओं की रक्षा कर सकें और साथ ही उनका बौद्धिक विकास भी कर सकें, तो भविष्य की हिन्दू नारी संसार की आदर्श नारी होगी। (१/३२४-२५)

९. मेरे विचार से पूर्ण ब्रह्मचर्य के आदर्श को प्राप्त करने के लिए किसी भी जाति को मातृत्व के प्रति परम आदर की धारणा दृढ़ करनी चाहिए; और वह विवाह को अछेद्य एवं पवित्र धर्म-संस्कार मानने से हो सकती है। रोमन कैथोलिक ईसाई और हिन्दू विवाह को अछेद्य और पवित्र धर्मसंस्कार मानते हैं, इसलिए दोनों जातियों ने परमशक्तिमान महान् ब्रह्मचारी पुरुषों और स्त्रियों को उत्पन्न किया है। अरबों के लिए विवाह एक इकरारनामा है या बल से ग्रहण की हुई सम्पत्ति, जिसका अपनी इच्छा से अन्त किया जा सकता है, इसलिए उनमें ब्रह्मचर्यभाव का विकास नहीं हुआ है। जिन जातियों में अभी तक विवाह का विकास नहीं हुआ था, उनमें आधुनिक बौद्ध धर्म का प्रचार होने के कारण उन्होंने संन्यास को एक उपहास बना डाला है। इसलिए जापान में जब तक विवाह के पवित्र और महान् आदर्श का निर्माण न होगा, (परस्पर प्रेम और आकर्षण को छोड़कर) तब तक, मेरी समझ में नहीं आता कि वहाँ बड़े बड़े संन्यासी और संन्यासिनियाँ कैसे हो सकते हैं। जैसा कि आप अब समझने लगी हैं कि जीवन का गौरव ब्रह्मचर्य है, उसी तरह जनता के लिए इस बड़े धर्म-संस्कार की आवश्यकता – जिससे कुछ शक्तिसम्पन्न आजीवन ब्रह्मचारियों की उत्पत्ति हो – मेरी भी समझ में आने लगी है। (८/३९४-९५)

१०. वर्तमान युग में अनन्त शक्तिस्वरूपिणी जननी के रूप में ईश्वर की उपासना करना उचित है। इससे पवित्रता का उदय होगा और इस मातृपूजा से अमेरिका में महाशक्ति का विकास होगा। यहाँ पर (अमेरिका में) कोई मन्दिर (पौरोहित्य शक्ति) हमारा गला नहीं दबाता और अपेक्षाकृत गरीब देशों के समान यहाँ कोई कष्ट भी नहीं भोगता। स्त्रियों ने सैकड़ों युगों तक दुःख-कष्ट सहन किये हैं, इसीसे उनके भीतर असीम धैर्य और अध्यवसाय का विकास हुआ है। वे किसी भी भाव को सहज ही छोड़ना नहीं चाहतीं। इसी हेतु वे अंधविश्वासी धर्मों एवं सभी देशों के पुरोहितों की मानो आधार हो जाती हैं; यही बाद में उनकी स्वाधीनता का कारण होगा। हमें वेदान्ती होकर वेदान्त के इस महान् भाव को जीवन में परिणत करना होगा। निम्न श्रेणी के मनुष्यों में भी यह भाव वितरित करना होगा – यह केवल स्वाधीन अमेरिका में ही कार्य रूप में परिणत किया जा सकता है। भारत में बुद्ध, शंकर तथा अन्यान्य महा मनीषी व्यक्तियों ने इन सभी भावों का लोगों में प्रचार किया था, किन्तु जनता उन भावों को धारण नहीं कर सकी। इस नूतन युग में जनता वेदान्त के आदर्शानुसार जीवन-यापन करेगी, और यह स्त्रियों के द्वारा ही कार्य रूप में परिणत होगा।

‘हृदय में सहेज रखो सुंदरी प्यारी श्यामा माँ को,

वाणी को छोड़ फेंक दो शेष सब,

और वाणी से कहलाते रहो – माँ, माँ!

कुमंत्रियों को न पास भी फटकने दो,

मैं और मेरे हृदय! हमीं दोनों एकान्त दर्शन पाते रहें माँ का!

जो कुछ जीवन्त है, तू उसके परे है!

ओ मेरे जीवन की चाँद, मेरी आत्मा की आत्मा!’

(७/१११-१२)

११. ‘माँ’ का स्वरूप तत्वतः क्या है तुम लोग अभी नहीं समझ सके हो – तुममें से एक भी नहीं। किन्तु धीरे धीरे तुम जानोगे। भाई, शक्ति के बिना जगत् का उद्धार नहीं हो सकता। क्या कारण है कि संसार के सब देशों में हमारा देश ही सबसे अधम है, शक्तिहीन है, पिछड़ा हुआ है? इसका कारण यही है कि वहाँ शक्ति की अवमानना होती है। उस महाशक्ति को भारत में पुनः जाग्रत करने के लिए माँ का आविर्भाव हुआ है, और उन्हें केन्द्र बनाकर फिर से जगत् में गार्गी और मैत्रेयी जैसी नारियों का जन्म होगा। भाई, अभी तुम क्या देख रहे हो, धीरे धीरे सब समझ जाओगे। इसलिए उनके मठ का होना पहले आवश्यक है . . . रामकृष्ण परमहंस भले ही न रहें, मैं भीत नहीं हूँ। माँ के न रहने से सर्वनाश हो जायगा। शक्ति की कृपा के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। अमेरिका और यूरोप में क्या देख रहा हूँ? – शक्ति की उपासना। परन्तु वे उसकी उपासना अज्ञानवश इन्द्रियभोग द्वारा करते हैं। फ़िर जो पवित्रतापूर्वक सात्त्विक भाव द्वारा उसे पूजेंगे, उनका कितना कल्याण होगा! दिन पर दिन सब समझता जा रहा हूँ। मेरी आँखें खुलती जा रही हैं। इसलिए माँ का मठ पहले बनाना पड़ेगा। पहले माँ और उनकी पुत्रियाँ, फिर पिता और उनके पुत्र – क्या तुम यह समझ सकते हो? सभी अच्छे हैं, सबको आशीर्वाद दो। भाई दुनियाभर में एक उनके यहाँ के अलावा हर जगह भावादर्श में तथा उसके निर्वाह में कमी होती है। भाई, नाराज न होना, तुम सब में से किसी ने भी अभीतक माँ को समझ नहीं पाया है। माँ की कृपा मुझ पर बाप की कृपा से लाखगुनी है। माँ की कृपा, माँ का आशीष मेरे लिए सर्वोपरि है। (२/३६०-६१)

१२. जिस जाति ने सीता को उत्पन्न किया है – चाहे उसने उसकी कल्पना ही की हो – नारी के प्रति उसका आदर पृथ्वी पर अद्वितीय है। पश्चिमी नारी के कन्धों पर कानूनी दृढ़ता से बँधे हुए बहुत-से बोझ हैं, जिनका हमारी नारियों को पता भी नहीं है। निश्चय ही हमारे अपने दोष हैं और अपने अपवाद हैं, पर इसी प्रकार उनके भी हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि संसार भर में सबका प्रयत्न यह रहा है कि प्रेम, दया और ईमानदारी को अभिव्यक्ति दी जाय, और यह भी कि इस अभिव्यक्ति के लिए निकटतम माध्यम राष्ट्रीय रीति-रिवाज हैं। जहाँ तक घरेलू गुणों का सम्बन्ध है, मुझे यह कहने में तनिक भी झिझक नहीं है कि हमारे भारतीय रीति-रिवाज बहुत सी बातों में सभी दूसरों से अच्छे हैं।

“तो स्वामीजी, क्या हमारी नारियों की कोई समस्या है भी?”

“निश्चय ही हैं, उनकी समस्याएँ बहुत सी हैं और गम्भीर हैं, पर उनमें एक भी ऐसी नहीं है, जो जादू भरे शब्द ‘शिक्षा’ से हल न की जा सकती हो। पर वास्तविक शिक्षा की तो अभी हम लोगों में कल्पना भी नहीं की गयी है।”

“और आप उसकी परिभाषा कैसे करेंगे?”

“मैं कभी किसी बात की परिभाषा नहीं करता”, स्वामीजी ने मुस्कराते हुए कहा, “फिर भी हम इसे मानसिक शक्तियों का विकास – केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं, अथवा व्यक्तियों को ठीक तरह से और दक्षतापूर्वक इच्छा करने का प्रशिक्षण देना कह सकते हैं। इस प्रकार हम भारत की आवश्यकता के लिए महान् निर्भीक नारियाँ तैयार करेंगे – नारियाँ जो संघमित्रा, लीला, अहल्याबाई, और मीराबाई की परम्पराओं को चालू रख सकें – नारियाँ जो वीरों की माताएँ होने के योग्य हों, इसलिए कि वे पवित्र और आत्मत्यागी हैं, और उस शक्ति से शक्तिशाली हैं, जो भगवान् के चरण छूने से आती है।” (४/२६८)

१३. “मैं बहुत चाहता हूँ कि हमारी स्त्रियों में तुम्हारी बौद्धिकता होती, परन्तु यदि वह चारित्रिक पवित्रता का मूल्य देकर ही आ सकती हो, तो मैं उसे नहीं चाहूँगा। तुमको जो कुछ आता है, उसके लिए मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन जो बुरा है, उसे गुलाबों से ढककर उसे अच्छा कहने का जो यत्न तुम करती हो, उससे मैं नफ़रत करता हूँ। बौद्धिकता ही परम श्रेय नहीं है। नैतिकता और अध्यात्मिकता के लिए हम प्रयत्न करते हैं। हमारी स्त्रियाँ इतनी विदुषी नहीं, परन्तु वे अधिक पवित्र हैं। प्रत्येक स्त्री के लिए अपने पति को छोड़ अन्य कोई भी पुरुष पुत्र जैसा होना चाहिए।

“प्रत्येक पुरुष के लिए अपनी पत्नी को छोड़ अन्य सब स्त्रियाँ माता के समान होनी चाहिए। जब मैं अपने आसपास देखता हूँ और स्त्री-दाक्षिण्य के नाम पर जो कुछ चलता है, वह देखता हूँ, तो मेरी आत्मा ग्लानि से भर उठती है। जब तक तुम्हारी स्त्रियाँ यौन सम्बंधी प्रश्न की उपेक्षा करके सामान्य मानवता के स्तर पर नहीं मिलतीं, उनका सच्चा विकास नहीं होगा। तब तक वे सिर्फ़ खिलौना बनी रहेंगी, और कुछ नहीं। यही सब तलाक का कारण है। तुम्हारे पुरुष नीचे झुकते हैं और कुर्सी देते हैं, मगर दूसरे ही क्षण वे प्रशंसा में कहना शुरू करते हैं – ‘देवी जी, तुम्हारी आँखें कितनी सुन्दर हैं!’ उन्हें यह करने का क्या अधिकार है? एक पुरुष इतना साहस क्यों कर पाता है, और तुम स्त्रियाँ कैसे इसकी अनुमति दे सकती हो? ऐसी चीजों से मानवता के अधमतर पक्ष का विकास होता है। उनसे श्रेष्ठ आदर्शों की ओर हम नहीं बढ़ते।

“हम स्त्री और पुरुष हैं, हमें यही न सोचकर सोचना चाहिए कि हम मानव हैं, जो एक दूसरे की सहायता करने और एक दूसरे के काम आने के लिए जन्मे हैं। ज्यों ही एक तरुण और तरुणी एकान्त पाते हैं, वह उसकी आशंसा करना शुरू करता है, और इस प्रकार विवाह के रूप में पत्नी ग्रहण करने के पहले वह दो सौ स्त्रियों से प्रेम कर चुका होता है। वाह! यदि मैं विवाह करनेवालों में से एक होता, तो मैं प्रेम करने के लिए ऐसी ही स्त्री खोजता, जिससे यह सब कुछ न करना होता।

“जब मैं भारत में था और बाहर से इन चीजों को देखता था, तो मुझसे कहा जाता था, यह सब ठीक है, यह निरा मनबहलाव है। मनोरंजन है और मैं उसमें विश्वास करता था। परन्तु उसके बाद मैंने काफ़ी यात्रा की है, और मैं जानता हूँ कि यह ठीक नहीं है। यह गलत है, सिर्फ़ तुम पश्चिमवाले अपनी आँखें मूँदे हो और उसे अच्छा कहते हो। पश्चिम के देशों की दिक्कत यह है कि वे बच्चे हैं, मूर्ख हैं, चंचल चित्त हैं और समृद्ध हैं। इनमें से एक ही गुण अनर्थ करने के लिए काफ़ी है; लेकिन जब ये तीनों, चारों एकत्र हों, तो सावधान!” (१०/२१६-१७)

१४. अब देखें, धर्म इस पर क्या कहता है। हिन्दू धर्म सान्त्वना लेकर आता है। आप एक बात स्मरण रखें, हमारा धर्म शिक्षा देता है कि विवाह बुरी चीज है और वह कमजोरों के लिए है। यथार्थ धार्मिक स्त्री या पुरुष तो कभी विवाह ही नहीं करेगा। धार्मिक स्त्री कहती है, “परमात्मा ने मुझे अधिक अच्छा अवसर दिया है। अतः मुझे अब विवाह करने की क्या जरूरत है? मैं बस, ईश्वर की पूजा-अर्चना करूँ, किसी पुरुष से प्रेम करने की क्या जरूरत?” (१/३१८)

१५. शक्ति-पूजा केवल काम-वासनामय नहीं है। यह शक्ति-पूजा कुमारी-सधवा-पूजा है, जैसी हमारे देश में काशी, कालीघाट प्रभृति तीर्थस्थानों में होती है; यह काल्पनिक नहीं, वास्तविक शक्ति-पूजा है। किन्तु हम लोगों की पूजा इन तीर्थ-स्थानों में ही होती है और केवल क्षण भर के लिए; पर इन लोगों की पूजा दिन-रात बारहो महीने चलती है। पहले स्त्रियों का आसन होता है। कपड़ा, गहना, भोजन, उच्च स्थान, आदर और खातिर पहले स्त्रियों की। यह शक्ति-पूजा प्रत्येक नारी की पूजा है, चाहे परिचित हो या अपरिचित। उच्च कुल की और रूपवती युवतियों की तो बात ही क्या है! (१०/९१)

१६. पुरुषों के लिए जैसे शिक्षा-केन्द्र बनाने होंगे, वैसे ही स्त्रियों के निमित्त भी स्थापित करने होंगे। शिक्षित और सच्चरित्र ब्रह्मचारिणियाँ इन केन्द्रों में कुमारियों को शिक्षा दिया करेंगी। पुराण, इतिहास, गृहकार्य, शिल्प, गृहस्थी के सारे नियम आदि वर्तमान विज्ञान की सहायता से सिखाने होंगे तथा आदर्श चरित्र गठन करने के लिए उपयुक्त आचरण की भी शिक्षा देनी होगी। कुमारियों को धर्मपरायण और नीतिपरायण बनाना पड़ेगा; जिससे वे भविष्य में अच्छी गृहिणियाँ हों, वही करना होगा। इन कन्याओं से जो सन्तान उत्पन्न होगी, वह इन विषयों में और भी उन्नति कर सकेगी। जिनकी माताएँ शिक्षित और नीतिपरायण हैं, उनके ही घर में बड़े लोग जन्म लेते हैं। वर्तमान समय में तो स्त्रियों को काम करने का यन्त्र सा बना रखा है। राम! राम!! तुम्हारी शिक्षा का क्या यही फल है? वर्तमान दशा से स्त्रियों का प्रथम उद्धार करना होगा। सर्वसाधारण को जगाना होगा; तभी तो भारत का कल्याण होगा। (६/३७)

१७. पत्नी – सहधर्मिणी है। हिन्दू को सैकड़ों धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते हैं और अगर वह पत्नी-विहीन है, तो एक भी नहीं कर सकता। तुम देखते हो कि पुरोहित उनकी गाँठ जोड़ देते हैं और पति-पत्नी साथ साथ मन्दिरों में जाते हैं और बड़ी तीर्थ-यात्राओं पर भी वे गाँठ जोड़ कर जाते हैं।

राम ने अपने शरीर का उत्सर्ग कर परलोक में सीता को प्राप्त किया।

सीता – पवित्र, निर्मल, समस्त दुःख झेलनेवाली!

भारत में उस प्रत्येक वस्तु को सीता नाम दिया जाता है, जो शुभ, निर्मल और पवित्र होती है; नारी में नारीत्व का जो गुण है, वह सीता है।

सीता – धैर्यवान, सब दुःखों को झेलनेवाली, पतिव्रता, नित्य साध्वी पत्नी! उसने तमाम कष्ट झेले, राम के विरुद्ध एक भी अपशब्द नहीं निकाला।

सीता में प्रतिहिंसा कभी नहीं थी। ‘सीता बनो!’ (७/१४७)

१८. पश्चिमी देशों में नारियों का ही राज, उन्हीं का प्रभाव और उन्हींकी प्रभुता है। यदि आप जैसी वेदान्त जाननेवाली तेजस्विनी और विदुषी महिला इस समय धर्म-प्रचार के लिए इंग्लैण्ड जायँ तो मुझे विश्वास है कि हर साल कम से कम सैकड़ों नर-नारी भारतीय धर्म ग्रहण कर कृतार्थ हो जायँगे। अकेली रमाबाई ही हमारे यहाँ से गयी थीं, अंग्रेजी भाषा, पश्चिमी विज्ञान और शिल्प आदि में उनकी गति बहुत ही कम थी, तो भी उन्होंने सबको आश्चर्यचकित कर दिया था। यदि आप जैसी कोई वहाँ जायँ तो इंग्लैण्ड हिल जाय, अमेरिका का तो कहना ही क्या! मैं दिव्य दृष्टि से देख रहा हूँ कि यदि भारत की नारियाँ देशी पोशाक पहने भारतीय ऋषियों के मुँहसे निकले हुए धर्म का प्रचार करें तो एक ऐसी बड़ी तरंग उठेगी जो सारे पश्चिमी संसार को डुबा देगी। क्या मैत्रेयी, खना, लीलावती, सावित्री और उभयभारती की इस जन्मभूमि में किसी और नारी को यह करने का साहस नहीं होगा? (६/३१३)

१९. उन्नति के लिए सबसे पहले स्वाधीनता की आवश्यकता है। यदि तुम लोगों में से कोई यह कहने का साहस करे कि मैं अमुक स्त्री अथवा अमुक लड़के की मुक्ति के लिए काम करूँगा, तो यह गलत है, हजार बार गलत होगा। मुझसे बार-बार यह पूछा जाता है कि विधवाओं की समस्या के बारे में और स्त्रियों के प्रश्न के विषय में आप क्या सोचते हैं? मैं इस प्रश्न का अन्तिम उत्तर यह देता हूँ – क्या मैं विधवा हूँ, जो तुम ऐसा निरर्थक प्रश्न मुझसे पूछते हो? क्या मैं स्त्री हूँ, जो तुम बारंबार मुझसे यही प्रश्न करते हो? स्त्री जाति के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़नेवाले तुम हो कौन? क्या तुम हर एक विधवा और हर एक स्त्री के भाग्यविधाता भगवान् हो? दूर रहो! अपनी समस्याओं का समाधान वे स्वयं कर लेंगी। (५/१४१)

२०. स्त्रीयों के विषय में हमारा हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल शिक्षा का प्रचार कर देने तक ही सीमित है। हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुँचा देना चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसीको करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियाँ संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भाँति इसे करने की क्षमता रखती हैं। (४/२६७)

२१. शिष्य – किन्तु महाराज, इस देश में गार्गी, खना, लीलावती के समान गुणवती शिक्षिता स्त्रियाँ अब पायी कहाँ जाती हैं?

स्वामीजी – क्या ऐसी स्त्रियाँ इस देश में नहीं हैं? अरे, यह देश वही है जहाँ सीता और सावित्री का जन्म हुआ था। पुण्यक्षेत्र भारत में अभी तक स्त्रियों में जैसा चरित्र, सेवाभाव, स्नेह, दया, तुष्टि और भक्ति पायी जाती है, पृथ्वी पर और कहीं ऐसा नहीं है। पाश्चात्य देशों में स्त्रियों को देखने पर कुछ समय तक यही नहीं ठीक हो पाता था कि वे स्त्रियाँ हैं; देखने में ठीक पुरुषों के समान थीं। ट्रामगाड़ी चलाती हैं, दफ्तर जाती हैं, स्कूल जाती हैं, प्रोफ़ेसरी करती हैं! एक मात्र भारत ही में स्त्रियों में लज्जा, विनय इत्यादि देखकर नेत्रों को शान्ति मिलती है। ऐसे योग्य आधार के प्रस्तुत होने पर भी तुम उनकी उन्नति न कर सके! इनको ज्ञानरूपी ज्योति दिखाने का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया! उचित रीति से शिक्षा पाने पर ये आदर्श स्त्रियाँ बन सकती हैं। (६/३८-३९)

२२. शिक्षा प्राप्त होने पर स्त्रियाँ अपनी समस्याएँ स्वयं ही हल कर लेंगी। अब तक तो उन्होंने केवल असहाय अवस्था में दूसरों पर आश्रित हो जीवन यापन करना, और थोड़ी सी भी अनिष्ट या संकट की आशंका होने पर आँसू बहाना ही सीखा है। पर अब दूसरी बातों के साथ साथ उन्हें बहादुर भी बनना चाहिए। आज के जमाने में उनके लिए आत्मरक्षा करना सीखना भी बहुत जरूरी हो गया है। देखो झाँसी की रानी कैसी महान् थीं! (८/२७७)

२३. इस देश (अमेरिका) की नारियों को देखकर मेरे तो होश उड़ गये हैं। मुझे बच्चे की तरह घर-बाहर, दूकान-बाजार में लिये फिरती हैं। सब काम करती हैं। मैं उसका चौथाई का चौथाई हिस्सा भी नहीं कर सकता! ये रूप में लक्ष्मी और गुण में सरस्वती हैं – ये साक्षात् जगदम्बा हैं, इनकी

पूजा करने से सर्वसिद्धि मिल सकती है। अरे, राम भजो, हम भी भले आदमी हैं? इस तरह की माँ जगदम्बा अगर अपने देश में एक हजार तैयार करके मर सकूँ, तो निश्चिन्त होकर मर सकूँगा। तभी तुम्हारे देश के आदमी आदमी कहलाने लायक हो सकेंगे। तुम्हारे देश के पुरुष इस देश के नारियों के पास भी आने योग्य नहीं हैं – तुम्हारे देश की नारियों की बात तो अलग रही! हरे हरे, कितने महापापी हैं! दस साल की कन्या का विवाह कर देते हैं! हे प्रभु! हे प्रभु! किमधिकमिति।

मैं इस देश की महिलाओं को देखकर आश्चर्यचकित हो जाता हूँ। माँ जगदम्बा की यह कैसी कृपा है! ये क्या महिलाएँ हैं? बाप रे! मर्दों को एक कोने में ठूँस देना चाहती हैं। मर्द गोते खा रहे हैं। माँ, तेरी ही कृपा है। गोलाप माँ जैसा कर रही हैं, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। गोलाप माँ या गौरी माँ उनको मंत्र क्यों नहीं दे रही हैं? स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा। अरे, आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद है? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा है। शरीराभिमान छोड़कर खड़े हो जाओ। अस्ति अस्ति कहो, नास्ति नास्ति करके तो देश गया! (३/३०८-९)