१. मनुष्य मूर्खतावश सोचता है कि वह अपने को सुखी बना सकता है, परन्तु वर्षो के घोर संघर्ष के बाद उसकी आँखें खुलती हैं और वह यह अनुभव करता है कि वास्तविक सुख तो स्वार्थपरता को नष्ट कर देने में है, और सिवा अपने उसे और कोई सुखी नहीं बना सकता। (३/५९)

२. इस जगत् में सचमुच सुखी कभी कोई नहीं हुआ। यदि कोई मनुष्य धनी है और उसे खाने-पीने को खूब है, तो उसकी पाचनशक्ति ही खराब है और वह कुछ खा-पी नहीं सकता। और यदि किसी की पाचनशक्ति अच्छी है और उसे वृकोदर की सी भूख लगती है, तो उसे खाने को ही नहीं मिलता। फिर, यदि कोई धनी है, तो उसे बाल-बच्चे ही नहीं हैं। और यदि कोई भूखों मर रहा है, तो उसके लड़के-लड़कियों की एक फौज सी है और उसे यह भी नहीं सुझता कि वह उनका क्या करे। ऐसा क्यों है? बस, इसीलिए कि सुख और दुःख एक ही सिक्के के चित और पट हैं। जिसे सुख चाहिए, उसे दुःख भी लेना होगा। हम लोग मूर्खतावश सोचते हैं कि बिना कोई दुःख के हमें केवल सुख ही सुख मिल जायगा, और यह बात हममें ऐसी भिद गयी है कि इन्द्रियों पर हम अधिकार ही नहीं कर पाते। (३/१०३)

३. भारत में कोल्हू में बैल जोते जाते हैं। तेल निकालने के लिए बैल गोल ही गोल घुमाया जाता है। बैल के कन्धे पर जुआ होता है। जुए का एक सिरा आगे बढ़ा होता है। उसके एक छोर पर घास बाँध दी जाती है। फिर बैल की आँख इस तरह बाँध देते हैं कि वह केवल सामने ही देख सके। बैल अपनी गर्दन बढ़ाता है और घास खाने की कोशिश करता है। ऐसा करने से लकड़ी आगे धक्का खाती है। बैल दूसरी बार, तीसरी बार फिर कोशिश करता है और इसी तरह कोशिश करता ही जाता है। वह घास उसके मुँह में कभी नहीं आती परन्तु उसे पाने की आशा में वह घूम घूम कर चक्कर लगाता ही जाता है और इस प्रकार वह तेल निकालता जाता है। इसी प्रकार हम भी प्रकृति, रुपये-पैसे, स्त्री-बच्चों के जन्मजात दास हैं। और इसीप्रकार काल्पनिक एक तृणखण्ड को पाने के लिए हज़ारों जन्म तक हम चक्कर लगाते जाते हैं, पर जो हम पाना चाहते हैं, वह हमें नहीं मिलता। प्रेम एक ऐसा ही बड़ा सपना है। हम लोगों को प्यार करते हैं ओर चाहते हैं कि लोग हमें प्यार करें। हम समझते हैं कि हम सुखी होनेवाले हैं और हम पर दुःख कभी न आयेगा, किन्तु जितना ही हम सुख की ओर जाते हैं, उतना ही अधिक वह हमसे दूर भागता जाता है। (३/१०२)

४. हमने देखा है, कैसे सुख देह में अथवा मन में अथवा आत्मा में अवस्थित है। पशुओं का एवं पशुप्राय निम्नतम मनुष्यों का समस्त सुख देह में है। भूख से आर्त एक कुत्ता अथवा भेड़िया जिस प्रकार सुखपूर्वक आहार करता है, कोई मनुष्य उस प्रकार नहीं कर सकता। अतः कुत्ते अथवा भेड़िये के सुख का आदर्श सम्पूर्ण रूप से देहगत है। मनुष्य में हम एक उच्चतर स्तर का, विचार-स्तर का,सुख देखते हैं। सर्वोच्च स्तर का सुख ज्ञानी का है – वे आत्मानन्द में विभोर रहते हैं। आत्मा ही उनके सुख का एकमात्र उपकरण है। अतएव ज्ञानी के पक्ष में यह आत्मज्ञान ही परम् उपयोगिता है; क्योंकि इससे ही वे परम सुख प्राप्त करते हैं। इन्द्रियचरितार्थता उनके लिए सर्वोच्च उपयोगिता का विषय हो नहीं सकता, क्योंकि वे ज्ञान में जिस प्रकार का सुख प्राप्त करते हैं, विषय समूह अथवा इन्द्रिय-भोग से उस प्रकार नहीं पाते। तथा वास्तव में ज्ञान ही सबका एकमात्र लक्ष्य है, तथा हम जितने प्रकार के सुख के विषयों से परिचित हैं, उनमें से ज्ञान ही सर्वोच्च सुख है। (६/२९०-९१)

५. ‘पराधिनता दैन्य है। स्वाधीनता ही सुख है।’ अद्वैत ही एकमात्र दर्शन है, जो मनुष्य को अपनी पूर्ण उपलब्धि कराता है – अपना स्वामी बना देता है; समस्त पराधीनता और उससे सम्बन्धित अन्धविश्वास को उतार फेंकता है और इस प्रकार हमें कष्ट झेलने में वीर, कर्म करने में वीर बनाता है और अन्ततः परम मुक्ति-लाभ करा देता है। (९/३१८)

६. क्या संसार को हम कोई चिरन्तन सुख दे सकते हैं? समुद्र के जल में बिना किसी एक जगह गर्त पैदा किये हम एक भी लहर नहीं उठा सकते। इस संसार में मनुष्य की आवश्यकता और उसके लोभ से संबंधित शुभ वस्तुओं की समष्टि सदैव समान रहती है। वह न तो कम की जा सकती है, न अधिक। हम मानव-जाति का इतिहास ही ले लें, जैसा वह हमें आज ज्ञात है। क्या हमें सदैव वही सुख-दुःख, वही हर्ष-विषाद तथा अधिकार का वही तारतम्य नहीं दिखायी देता? क्या कुछ लोग अमीर, कुछ गरीब, कुछ बड़े, कुछ छोटे, कुछ स्वस्थ, कुछ रोगी नहीं हैं? ये सब ऐसा ही प्राचीन काल में मिस्त्रवासियों, यूनानियों और रोमनों के साथ सत्य था, और वैसा ही आज अमेरिकावालों के साथ भी। जहाँ तक हमें इतिहास का ज्ञान है, यही दशा सदैव रही है। (३/८४)

७. हम इस संसार में सुख को नहीं बढ़ा सकते, और न दुःख को ही। इस संसार में शुभ और अशुभ शक्तियों की समष्टि सदैव समान रहेगी। हम उसे सिर्फ़ यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ ढकेलते रहते हैं; परन्तु यह निश्चित है कि वह सदैव समान रहेगी, क्योंकि वैसा रहना ही उसका स्वभाव है। यह ज्वारभाटा, उतार-चढ़ाव तो संसार की प्रकृति ही है। इसके विपरीत सोचना तो वैसा ही युक्तिसंगत होगा, जैसा यह कहना कि मृत्यु के बिना जीवन सम्भव है। (३/८५)

८. दर्शनशास्त्र के मत में एक ऐसा आनन्द है, जो निरपेक्ष और अपरिणामी है। वह आनन्द हमारे ऐहिक सुखोपभोग के समान नहीं है। तो भी वेदान्त प्रमाणित करता है कि इस जगत् में जो कुछ आनन्दकारी है, वह उसी प्रकृत आनन्द का अंश मात्र है, क्योंकि एकमात्र उस आनन्द का ही वास्तविक अस्तित्व है। हम प्रतिक्षण उसी ब्रह्मानन्द का उपभोग कर रहे हैं, पर वह उसका आच्छन्न, भ्रांत और उपहासास्पद रूप ही होता है। जहाँ कहीं किसी प्रकार का आनन्द, हर्ष, आशीष देखो, यहाँ तक कि चोरों को चोरी में जो आनन्द मिलता है, वह भी वस्तुतः वही पूर्णानन्द है; केवल वह सभी प्रकार की बाह्य वस्तुओं के सम्पर्क से मलीन, धुँधला और भ्रांत हो गया है। (२/१७०)

९. प्रत्येक सुखोपभोग के बाद दुःख आता है – यह दुःख उसी क्षण आ सकता है, अथवा सम्भव है, कुछ देर में आये। जो आत्मा जितनी उन्नत है, उसे सुख के बाद दुःख भी उतना ही शीघ्र प्राप्त होता है। हमें सुख-दुःख दोनों ही नहीं चाहिए। ये दोनों ही हमारे प्रकृत स्वरूप को भुला देते हैं। दोनों ही जंजीर हैं – एक लोहे की, दूसरी सोने की। इन दोनों के पीछे ही आत्मा है – उसमें न सुख है, न दुःख। (७/१८)

१०. सुख आदमी के सामने आता है, तो दुःख का मुकुट पहन कर। जो उसका स्वागत करता है, उसे दुःख का भी स्वागत करना चाहिए। (१०/२२२)

११. जब मैं प्राणस्वरूप से एक हो जाऊँगा, तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता है; जब मैं आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अंत हो सकता है; जब मैं ज्ञानस्वरूप हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता है। (१/१५)

१२. केवल शारीरिक सहायता द्वारा ही संसार के दुःखों से छुटकारा नहीं हो सकता। जब तक मनुष्य का स्वभाव ही परिवर्तित नहीं हो जाता, तब तक ये शारीरिक आवश्यकताएँ सदा बनी ही रहेंगी और फलस्वरूप क्लेशों का अनुभव भी सदैव होता रहेगा। कितनी भी शारीरिक सहायता उनका पूर्ण उपचार नहीं कर सकती। इस समस्या का केवल एक ही समाधान है और वह है मानव जाति को पवित्र कर देना। अपने चारों ओर हम जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबका केवल एक ही मूल कारण है – अज्ञान। मनुष्य को ज्ञानालोक दो, उसे पवित्र और आध्यात्मिक बलसम्पन्न करो और शिक्षित बनाओ, तभी संसार से दुःख का अन्त हो जायगा, अन्यथा नहीं। (३/२९)

१३. जब तक वासना रहती है, तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता। केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से, साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है, तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। (१/९८-९९)

१४. अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं, मनुष्य बुद्धि में, और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में। जो ऐसी ध्यानावस्था को प्राप्त हो चुके हैं, उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से प्रतीयमान होता है। जिसकी वासना नहीं है, जो सर्व विषयों में निर्लिप्त हैं, उनके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन एक महा सौन्दर्य और उदात्त भाव की छबि मात्र हैं। (१/९९)