२. संन्यासी का कोई मत या सम्प्रदाय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका जीवन स्वतंत्र विचार का होता है, और वह सभी मत-मतान्तरों से उनकी अच्छाइयाँ ग्रहण करता है। उसका जीवन साक्षात्कार का होता है, न कि केवल सिद्धान्तों अथवा विश्वासों का, और रूढ़ियों का तो बिल्कूल ही नहीं। (३/१८४)
३. “आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च, यही संन्यास का यथार्थ उद्देश्य है। इस बात की वेद-वेदान्त घोषणा कर रहे हैं कि संन्यास ग्रहण न करने से कोई कभी ब्रह्मज्ञ नहीं हो सकता। जो कहते हैं कि इस संसार का भोग करना है और साथ ही ब्रह्मज्ञ भी बनना है, उनकी बात कभी न मानो। प्रच्छन्न भोगियों के ऐसे भ्रमात्मक वाक्य होते हैं। (६/६२)
४. बिना त्याग के मुक्ति नहीं। बिना त्याग के पराभक्ति नहीं। (६/६२)
५. सांसारीक झगड़ो को बिना त्यागे किसी की मुक्ति नहीं। जो गृहस्थाश्रम में बँधे रहते हैं, वे स्वयं यह सिद्ध करते हैं कि वे किसी न किसी प्रकार की कामना के दास बनकर ही संसार में फँसे हुए हैं। यदि ऐसा न होगा तो फिर संसार में रहेंगे ही क्यों? कोई कामिनी के दास हैं, कोई अर्थ के, कोई मान, यश, विद्या अथवा पाण्डित्य के। इस दासत्व को छोड़कर बाहर निकलने से ही वे मुक्ति के पथ पर चल सकते हैं। लोग कितना ही क्यों न कहें, पर मैं भली भाँति समझ गया हूँ कि जब तक मनुष्य इन सबको त्यागकर संन्यास ग्रहण नहीं करता, तब तक किसी भी प्रकार उसके लिए ब्रह्मज्ञान असम्भव है।” (६/६२)
६. “बहुजनहिताय बहुजनसुखाय ही संन्यासियों का जन्म होता है। संन्यास ग्रहण करके जो इस ऊँचे लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है, उसका तो जीवन ही व्यर्थ है – वृथैव तस्य जीवनम्। जगत् में संन्यासी क्यो जन्म लेते है? औरों के निमित्त अपना जीवन उत्सर्ग करने, जीव के आकाशभेदी क्रन्दन को दूर करने, विधवा के आँसू पोंछने, पुत्र-वियोग से पीड़ित अबलाओं के मन को शान्ति देने, सर्वसाधारण को जीवन-संग्राम में समर्थ करने, शास्त्र के उपदेशों को फैलाकर सबका ऐहिक और पारमार्थिक मंगल करने और ज्ञानालोक से सबके भीतर जो ब्रह्मसिंह सुप्त है, उसे जाग्रत करने।” (६/ ६७)
७. उठो, जागो, स्वयं जगकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो, उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत (उठो जागो, और तब तक रुको नहीं, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय)।” (६/६७)
८. मनुष्य-जन्म प्राप्त करके मुक्ति की इच्छा प्रबल होने तथा महापुरुष की कृपा प्राप्त होने पर ही मनुष्य की आत्मज्ञान की आकांक्षा बलवती होती है; नहीं तो काम-कांचन में लिप्त व्यक्तियों के मन की उधर प्रवृत्ति ही नहीं होती। जिसके मन में स्त्री, पुत्र, धन, मान प्राप्त करने का संकल्प है, उनके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे हो? जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख-दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है, वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट होता है। वही, निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी – महाबल से जगद्रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लाँघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है। (६/ १६४)
९. अन्तर्बाह्य दोनों प्रकार से संन्यास का अवलम्बन करना चाहिए।
वैराग्य न आने पर, त्याग न होने पर, भोग-स्पृहा का त्याग न होने पर क्या कुछ होना सम्भव है? – वह बच्चे के हाथ का लड्डू तो है नहीं, जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो। (६/१६४)
१०. प्रत्येक ज्ञात धर्म में संन्यासी होते रहे हैं और हैं। हिन्दू संन्यासी हैं, बौद्ध संन्यासी हैं, ईसाई पादरी हैं और इस्लाम को भी अपनी इस प्रथा की कठोर अस्वीकृति छोड़नी पड़ी और भिक्षु, फक़िरों या संन्यासियों की एक सम्पूर्ण शृंखला स्वीकार करनी पड़ी। (९/२८८)
११. किन्तु तब इस एकान्त महत्त्व की, समस्त सहायता का तिरस्कार करने की, जीवन की आँधियों का सामना करने और बिना किसी प्रकार के प्रतिफल या कर्तव्य-पूर्ति की भावना के कर्म करने की अद्भुत अनुभूति का क्या होगा?- सारे जीवन आनन्दपूर्वक मुक्त रहकर कर्म करने की अनुभूति; क्योंकि दासों की भाँति मिथ्या मानव-प्रेम अथवा महत्त्वाकांक्षा के अंकुशों से कर्म करने की यह प्रेरणा नहीं है!
इसे तो केवल संन्यासी ही प्राप्त कर सकता है। धर्म का क्या होगा? वह रहेगा या उसे समाप्त होना है? यदि उसे रहना है, तो उसे अपने विशेषज्ञों अपने सैनिकों की आवश्यकता है। संन्यासी धार्मिक विशेषज्ञ है; क्योंकि उसने धर्म को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया है। वह भगवान् का सैनिक है। कौन सा धर्म तब तक मर सकता है, जब तक उसमें श्रद्धालु संन्यासियों का समुदाय बना रहता है? (९/२९२)
१२. “संन्यास की उत्पत्ति कहीं से ही क्यों न हो, इस त्याग-व्रत के आश्रम से ब्रह्मज्ञ होना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। इस संन्यास ग्रहण में ही परम पुरुषार्थ है। वैराग्य उत्पन्न होने पर जिनका संसार से अनुराग हट गया है, वे ही धन्य है।” (६/६५)
१३. यदि आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता, तो क्या मैं इन्द्रियों के जीवन में आनन्द पाऊँगा? यदि मुझे अमृत नहीं मिलता, तो क्या मैं गड्ढे के पानी से प्यास बुझाऊँ? (१०/२२०)
१४. किसी को राजनीतिक और सामाजिक स्वतंत्रता चाहे मिल जाय, पर यदि वह वासनाओं और इच्छाओं का दास है, तो सच्ची स्वतंत्रता का शुद्ध आनन्द वह नहीं जान सकता। (१०/२२२)
१५. यदि कोई मनुष्य जगत् की निस्सार वस्तुओं का त्याग कर देता है, तो लोग उसे पागल कहते हैं। परन्तु ऐसे ही पुरुष पृथ्वी की संजीवनी होते हैं। ऐसे ही पागलपन से वे शक्तियाँ उत्पन्न हुई हैं, जिन्होंने इस संसार को हिला दिया है, और ऐसे ही पागलपन से भविष्य में ऐसी शक्तियों का जन्म होगा, जो हमारे संसार में उथल-पुथल मचा देंगी। (७/२५१-५२)
१६. सच्चे संन्यासी ही गृहस्थों के उपदेशक हैं। उन्हींसे उपदेश और ज्ञानालोक प्राप्त कर प्राचीन काल में गृहस्थ लोग जीवन संग्राम में सफल हुए थे। संन्यासियों को अनमोल उपदेश के बदले गृहस्थ अन्न-वस्त्र देते रहे हैं। यदि ऐसा आदान-प्रदान न होता तो इतने दिनों में भारतवासियों का भी अमेरिका के आदिवासियों के समान लोप हो जाता। संन्यासियों को मुठ्ठी भर अन्न देने के कारण ही गृहस्थ लोग अभी तक उन्नति के मार्ग पर चले जा रहे हैं। संन्यासी लोग कर्महीन नहीं हैं, वरन् वे ही कर्म के स्त्रोत हैं। उनके जीवन या कार्यों में ऊँचे आदर्शों को परिणत होते देख और उनसे उच्च भावों को ग्रहण कर गृहस्थ लोग इस संसार के जीवन-संग्राम में समर्थ हुए तथा हो रहे हैं। पवित्र संन्यासियों को देखकर गृहस्थ भी उन पवित्र भावों को अपने जीवन में परिणत करते हैं और ठीक ठीक कर्म करने को तत्पर होते हैं। संन्यासी अपने जीवन में ईश्वर तथा जगत् के कल्याण के निमित्त सर्वत्याग रूप तत्त्व को प्रतिफलित करके गृहस्थों को सब विषयों में उत्साहित करते हैं और इसके बदले वे उनसे मुट्ठी भर अन्न लेते हैं। फिर उसी अन्न को उपजाने की प्रवृत्ति और शक्ति भी देश के लोगों में सर्वत्यागी संन्यासियों के स्नेहाशीर्वाद से ही बढ़ रही है। बिना विचारे ही लोग संन्यास-प्रथा की निन्दा करते हैं। अन्य देशों में चाहे जो कुछ क्यों न हो, पर यहाँ तो संन्यासियों के पतवार पकड़े रहने के कारण ही संसार-सागर में गृहस्थों की नौका नहीं डूबने पाती। (६/६५)
१७. किसी भी उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें कुछ साधनों का आश्रय लेना होता है। स्थान, काल, व्यक्ति, इत्यादि के भेद से ये सब साधन बदलते रहते हैं, परन्तु उद्देश्य या साध्य कभी बदलता नहीं। संन्यासियों का लक्ष्य है, आत्मनो मोक्षार्थं जगद्विताय च – अपनी मुक्ति और जगत् का कल्याण – और इस उद्देश्य-सिद्धि के साधनों में काम-कांचन-त्याग सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रयोजनीय है। ध्यान रखो, त्याग का अर्थ है, स्वार्थ का सम्पूर्ण अभाव। बाह्य रूप से सम्पर्क न रखने से ही त्याग नहीं हो जाता। जैसे, हम अपना धन दूसरे के पास रखें और स्वयं उसे छुएँ तो नहीं, पर उससे लाभ पूरा उठायें – क्या यह त्याग कहा जा सकता है? उपर्युक्त द्विविध उद्देश्यों की सिद्धि के हेतु भिक्षावृत्ति संन्यासी के लिए बहुत ही उपयोगी है, पर यह तभी सम्भव है, जब गृहस्थ लोग मनु और अन्य शास्त्रकारों के वचनानुसार प्रतिदिन अपने खाद्य पदार्थों का एक भाग संन्यासी अतिथियों के लिए रख छोड़ें। आजकल समय बहुत बदल गया है, जैसे कि मधुकरी की प्रथा – विशेषतः बंगाल में – पायी ही नहीं जाती। यहाँ (बंगाल में) मधुकरी द्वारा निर्वाह की चेष्टा करना शक्ति का अपव्यय मात्र होगा, और उससे कोई लाभ न होगा। भिक्षा का नियम ऊपर कहे दोनों उद्देश्यों की सिद्धी का साधन मात्र है, पर अब उससे काम नहीं चल सकता। अतएव आधुनिक परिस्थितियों में, यदि संन्यासी जीवन की मोटी मोटी आवश्यकताओं के लिए कुछ प्रबन्ध कर ले और निश्चिन्त होकर अपनी समस्त शक्ति अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाये, तो यह संन्यास के नियमों के विरुद्ध न होगा। साधनों को ही बहुत अधिक महत्त्व देने से गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। असल वस्तु तो साध्य है – लक्ष्य है, इसे कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए। (३/१८५-८६)
१८. इस अमेरिका देश में वर्ष में केवल छः मास प्रत्येक रविवार को केवल दो घंटे ही धर्मोपदेश देने के लिए पादरी लोग ३०,००० रु॰, ५०,००० रु और कभी कभी तो ९०,००० रु॰ तक वार्षिक वेतन पाते हैं। देखो, अमेरिकन लोग अपने धर्म की रक्षा के लिए किस तरह करोड़ों रुपये बहा देते हैं और बंगदेशीय नवयुवकों को यह शिक्षा दी गयी है कि ये देवतुल्य परम निःस्वार्थ कमलीवाले बाबा सरीखे संत आलसी और आवारा लोग हैं। मद्भक्तानाञ्च ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः – ‘जो मेरे भक्तों के भक्त हैं, उन्हें मैं अपना सबसे श्रेष्ठ भक्त मानता हूँ।’
अच्छा, अब एक दूसरे सिरे का उदाहरण लो – मान लो, एक अत्यन्त अज्ञानी बैरागी है। वह भी किसी गाँव में पहुँचेगा तो तुलसीकृत रामायण, चैतन्य-चरितामृत और यदि दाक्षिणात्य हुआ, तो दक्षिण के आलवार ग्रन्थों में से जो कुछ भी वह जानता होगा, उसे ग्रामवासियों को सिखाने का भरसक प्रयत्न करेगा। क्या ऐसा करने से कोई उपकार नहीं होता? और यह सब केवल रोटी के टुकड़े और लँगोटी के कपड़े के बदले में हो जाता है। इन लोगों की निर्दयतापूर्ण समालोचना करने से पूर्व, मेरे भाइयो! यह तो सोचो कि तुमने अपने गरीब देशभाइयों के लिए क्या किया है, जिनके खर्च से तुमने अपनी शिक्षा पायी, जिनका शोषण करके तुम अपने पदगौरव को कायम रखते हो और ‘बाबा जी लोग केवल आवारा फिरनेवाले लोग होते हैं’, यह सिखाने के लिए अपने शिक्षकों को वेतन देते हो! (९/३६८)
१९. संन्यासी का धनी लोगों से कोई वास्ता नहीं, उसका कर्तव्य तो गरीबों के प्रति होता है। उसे निर्धनों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए और अपनी समस्त शक्ति लगाकर सहर्ष उनकी सेवा करनी चाहिए। धनिकों का आदर-सत्कार करना और आश्रय के लिए उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी सम्प्रदायों के लिए अभिशापस्वरूप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वेश्याओं के लिए ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिए। (३/१८५)
२०. एक संन्यासी जब तक कि सर्वोच्च पद पर न पहुँच जाय, अर्थात् परमहंस न हो जाय, तब तक उसे गृहस्थों द्वारा छुए या उपयोग में लाये भोजन, बिछावन आदि से बचना चाहिए, उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, वरन् अपने को बचाने के लिए। (३/१८७)
२१. संन्यासी की सच्ची कसौटी है, संसार में रहना किन्तु संसार का न होना। (६/२५९)
२२. सत्य न आता पास, जहाँ यश-लोभ-काम का वास,
पूर्ण नहीं वह, स्त्री में जिसको होती पत्नी भास,
अथवा वह जो किंचित् भी संचित रखता निज पास!
वह भी पार नहीं कर पाता है माया का द्वार
क्रोधग्रस्त जो, अतः छोड़कर निखिल वासना-भार
गाओ धीर-वीर संन्यासी, गूँजे मन्त्रोच्चार,
ओम् तत्सत् ओम्! (१०/१७५)
२३. कहाँ खोजते उसे सखे, इस ओर कि या उस पार?
मुक्ति नहीं है यहाँ, वृथा सब शास्त्र, देव-गृहद्वार!
व्यर्थ यत्न सब, तुम्हीं हाथ में पकड़े हो वह पाश
खींच रहा जो साथ तुम्हें! तो उठो, बनो न हताश,
छोड़ो कर से दाम, कहो, संन्यासी, विहँस रोम,
ओम् तत्सत् ओम! (१०/१७४)
२४. मत जोड़ो गृह-द्वार, समा तुम सको, कहाँ आवास?
दूर्वादल हो तल्प तुम्हारा, गृह-वितान आकाश,
खाद्य स्वतः जो प्राप्त, पक्व वा इतर, न दो तुम ध्यान,
खान-पान से कलुषित होती आत्मा वह न महान्,
जो प्रबुद्ध हो, तुम प्रवाहिनी स्रोतस्विनी समान
रहो मुक्त निर्द्वन्द्व, वीर संन्यासी, छेड़ो तान
ओम् तत्सत् ओम्! (१०/१७५)