२. वेदान्त दर्शन अत्यन्त प्राचीन है। यह दर्शन उस विशाल पुरातन आर्यसाहित्य से उद्गत हुआ है, जिसे वेदों के नाम से पुकारते हैं। यह वेदान्त दर्शन मानो शताब्दियों तक संग्रहीत और चयन किये गये उस विशाल साहित्य के अन्तर्गत सभी विचारधाराओं, अनुभवों तथा विवेचनों का सर्वोत्तम पुष्प है। इस वेदान्त दर्शन की कतिपय विशेषताएँ हैं। प्रथमतः, यह पूर्णरूपेण अवैयक्तिक है। इसकी उत्पत्ति किसी व्यक्तिविशेष या धर्मगुरु से नहीं हुई। एक व्यक्तिविशेष को केन्द्र में रखकर वह अपनी प्रतिष्ठा नहीं करता। परन्तु जो दर्शन किसी व्यक्तिविशेष को केन्द्रित करके प्रतिपादित हुए हैं, उनके विरुद्ध भी इसको कुछ कहना नहीं। (९/११७)
३. भारत में सम्प्रति जितने दार्शनिक सम्प्रदाय हैं, वे सभी वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत आते हैं। वेदान्त की कई प्रकार की व्याख्याएँ हुई हैं और मेरे विचार से वे सभी प्रगतिशील रही हैं। प्रारम्भ में व्याख्याएँ द्वैतवादी हुईं, अन्त में अद्वैतवादी। (९/६३)
४. वेदान्त और आधुनिक विज्ञान दोनों ही जगत् की कारणस्वरूप एक ऐसी वस्तु का निर्देश करते हैं, जिससे अन्य किसीकी सहायता के बिना जगत् का प्रकाश होता है। समस्त कारण स्वयं उसीमें हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी से घट का निर्माण करता है; यहाँ कुम्हार होता है निमित्त-कारण, मिट्टी होती है समवायी उपादान-कारण और कुम्हार का चक्र होता है असमवायी उपादानकारण। किन्तु आत्मा ही ये तीनों कारण है। आत्मा कारण भी है और अभिव्यक्ति या कार्य भी है। वेदान्ती कहते हैं, यह जगत् सत्य नहीं है, यह तो आपातप्रतीयमान सत्ता मात्र है। प्रकृति आदि कुछ भी नहीं है, अविद्यारूपी आवरण में से एकमात्र ब्रह्म ही प्रकाशित है। विशिष्टाद्वैतवादी कहते हैं, ईश्वर ही प्रकृति या जगत प्रपंच हुआ है; अद्वैतवादि स्वीकार करते हैं, ईश्वर इस जगत्प्रपंच के रूप में प्रतीयमान होता है अवश्य, किन्तु वह यह जगत् नहीं है। (७/६१)
५. वेदान्त दर्शन एक सिद्धान्त – जो विश्व के सभी धर्मों में पाया जाता है – प्रतिपादित करता है और यह दावा करता है कि मनुष्य (वस्तुतः) दिव्य है तथा जो कुछ भी हम लोग अपने चारों ओर देखते हैं, वह उसी दिव्यता के बोध से उद्भूत हुआ है। हर एक वस्तु जो सुन्दर, बलयुक्त तथा कल्याणकारी है और मानव प्रकृति में जो कुछ भी शक्तिशाली है, वह सब उसी दिव्यता से उद्भूत है। यह दिव्यता यद्यपि बहुतों में अव्यक्त रहती है, मूलतः मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी समानरूपेण दिव्य हैं। यह ऐसा ही है, जैसे पीछे एक अनन्त समुद्र है और उस अनन्त समुद्र में हम और तुम लोग इतनी सारी लहरें हैं और हममें से हर एक उस अनन्त को बाहर व्यक्त करने के निमित्त प्रयत्नशील है। (९/११८)
६. वेदान्त का एक दूसरा विशिष्ट सिद्धान्त यह है कि हम लोगों को धार्मिक विचारों की अनंत विविधता को स्वीकार करना चाहिए और हर एक को एक ही विचारधारा के अन्तर्गत लाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि लक्ष्य तो एक ही है। जैसा कि एक वेदान्ती अपनी काव्यमयी भाषा में कहता है – जिस प्रकार बहुत सी नदियाँ, जिनका उद्गम विभिन्न पर्वतों से होता है, टेढ़ी या सीधी बहकर अन्त में समुद्र ही में गिरती हैं, उसी प्रकार ये सभी विभिन्न सम्प्रदाय तथा धर्म, जो विभिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से प्रकट होते हैं, सीधे या टेढ़े मार्गों से चलते हुए भी अन्ततः तुम्हींको प्राप्त होते हैं।’ (९/११९-२०)
७. वेदान्त यह नहीं कहता कि संसार केवल दुःखमय है। ऐसा कहना ही भूल है। और जगत् सुख से परिपूर्ण है, यह कहना भी ठीक नहीं है। बालकों को यह शिक्षा देना भूल है कि यह जगत् केवल मधुमय है – यहाँ केवल सुख है, केवल फूल हैं, केवल सौन्दर्य है। हम सारे जीवन इन्हींका स्वप्न देखते रहते हैं। फिर, किसी व्यक्ति ने दूसरे की अपेक्षा अधिक दुःख भोगा है, इसीलिए सबका सब दुःखमय है, यह कहना भी भूल है। संसार बस इस द्वैतभावपूर्ण अच्छे-बुरे का खेल है। वेदान्त इसके साथ ही कहता है, “यह न सोचो कि अच्छा और बुरा दो सम्पूर्ण पृथक् वस्तुएँ हैं। वास्तव में वे एक ही वस्तु हैं। वह एक वस्तु ही भिन्न भिन्न रूप से, भिन्न भिन्न आकार में आविर्भूत हो एक ही व्यक्ति के मन में भिन्न भिन्न भाव उत्पन्न कर रही है।” (२/१३७)
८. वेदान्त दर्शन परम निराशावाद को लेकर प्रारम्भ होता है और उसकी समाप्ति होती है यथार्थ आशावाद में। हम ऐंद्रिक आशावाद को अस्वीकार करते हैं, परन्तु इन्द्रियातीत आत्मानुभूति पर आधारित सच्चे आशावाद को स्वीकार करते हैं। यथार्थ सुख इन्द्रियों में नहीं, इन्द्रियों से परे है, और प्रत्येक व्यक्ति में वह विद्यमान है। संसार में हम जो तथाकथित आशावाद देखते हैं, वह हमें इन्द्रियपरायण बनाकर विनाश की ओर ले जाता है। (९/७२)
९. वेदान्त का उद्देश्य ही इन सब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन करना है, उनका जो रूप आपाततः प्रतीत होता है, वह न देखकर उनको उनके प्रकृत स्वरूप में जानना है। (८/२२)
१०. वेदान्त कहता है कि तुम पवित्र और पूर्ण हो। एक अवस्था ऐसी भी है, जो कि पाप और पुण्य से परे है, और वही तुम्हारा प्रकृत स्वरूप है। वह अवस्था पुण्य से भी ऊँची है। पुण्य में भी भेद-ज्ञान है, किन्तु पाप से कम।
हमारे यहाँ पाप विषयक कोई सिद्धान्त नहीं। हम तो उसे अज्ञान कहते हैं। (९/७१-७२)
११. वेदान्त मानता है कि धर्म तो वर्तमान में ही अनुभूत होनेवाला विषय है, क्योंकि उसके अनुसार यह जन्म और वह जन्म, जन्म और मरण, इहलोक और परलोक, ये सारी बातें अन्धविश्वास तथा पूर्व धारणाओं पर आधारित हैं। काल के प्रवाह में कभी विराम नहीं होता, हाँ, अपनी धारणाओं से हम भले ही उसमें विराम मान लें। चाहे दस बजा हो या बारह, काल में कोई अन्तर तो नहीं पड़ता! हाँ, प्रकृति में कुछ परिवर्तन भले ही दीख पड़ते हैं। समय का प्रवाह तो अविच्छिन्न रूप से सतत जारी रहता है। तब फिर इस जन्म और उस जन्म का क्या अभिप्राय है? यह तो केवल समय का प्रश्न है और जो काम पिछले समय में न किया जा सका हो, उसे गति को तीव्रतर करके अब पूरा किया जा सकता है। इस तरह वेदान्त का कहना है कि धर्म की अनुभूति तो यहीं हो सकती है। और तुम्हारे धार्मिक होने का अर्थ है कि तुम किसी धर्म की शरण में गए बिना ही आरम्भ करो और अपनी साधना से ही धर्म की अनुभूति करो। जब तुम ऐसा कर सकोगे, तभी तुम्हारा कोई धर्म होगा। उसके पहले तुम नास्तिक ही नहीं – बल्कि उससे भी बुरे हो – क्योंकि जो नास्तिक है, वह कम से कम सच्चा तो है, वह कहता है, “मुझे इन सारी चीजों का कोई ज्ञान नहीं”, जब कि दूसरे लोग ज्ञान न रखते हुए भी संसार भर में ढिंढोरा पीटते चलते हैं, “हम बड़े धार्मिक हैं।” (२/२४६)
१२. युरोप में भी आजकल भौतिकवाद की पताका फहरा रही है। इन संदेहवादियों के उद्धार के लिए भले ही तुम प्रार्थना करो, पर वे विश्वास नहीं करने के; वे चाहते हैं बुद्धि। यूरोप का उद्धार एक बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है; और द्वयतारहित, एकत्वप्रधान, निर्गुण ईश्वर प्रतिपादित करनेवाला यह अद्वैतवाद ही, एक ऐसा धर्म है, जो किसी बौद्धिक जाति को सन्तुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तभी इसका आविर्भाव होता है। इसीलिए यूरोप और अमेरिका में प्रवेश प्राप्त कर यह दृढ़मूल होता जा रहा है। (२/९४)
१३. मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि अद्वैतवाद ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दिशाओं में केवल मेल ही नहीं खाता, वरन् उनसे भी आगे जाता है, और इसी कारण वह आधुनिक वैज्ञानिकों को इतना भाता है। वे देखते हैं कि प्राचीन द्वैतवादी धर्म उनके लिए पर्याप्त नहीं हैं, उनसे उनकी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। (२/९२-९३)
१४. अद्वैतवाद की एक और विशेषता यह है कि अद्वैत सिद्धान्त अपने आरम्भ काल से ही अविध्वंसात्मक रहा है। यह प्रचार करने के साहस का गौरव उसे प्राप्त है :
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।
जोषयेत् सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्॥
– ‘ज्ञानियों को चाहिए कि वे अज्ञानी, कर्म में आसक्त व्यक्तियों में बुद्धिभेद उत्पन्न न करें; विद्वान् व्यक्ति को स्वयं युक्त रहकर उन लोगों को सब प्रकार के कर्मों में नियुक्त करना चाहिए।’(१) अद्वैतवाद यही कहता है – किसीकी मति को विचलित मत करो, किन्तु सभी को उच्च से उच्चतर मार्ग पर जाने में सहायता दो। (२/९५-९६)
१५. संसार के सभी द्वैतवादी स्वभावतः एक ऐसे सगुण ईश्वर में विश्वास करते हैं, जो एक उच्च शक्तिसम्पन्न मनुष्य मात्र है, और एक लौकिक शासक की भाँति कुछ से प्रसन्न तथा कुछ से अप्रसन्न होता है। वह बिना किसी कारण ही किसी जाति या राष्ट्र से प्रसन्न है और उन पर वरदानों की वृष्टि करता रहता है। अतः द्वैतवादी के लिए यह मानना स्वाभाविक हो जाता है कि ईश्वर के कुछ विशेष कृपापात्र होते हैं; और वह उनमें से एक होने की आशा करता है। तुम देखोगे कि सभी धर्मों में यह विचार पाया जाता है, ‘हमीं ईश्वर के प्रिय पात्र हैं, हमारी ही तरह विश्वास करने से हमारा ईश्वर तुम पर कृपा करेगा।’ और कितने ही द्वैतवादी तो ऐसे हैं, जिनका मत और भी भयानक है। वे कहते हैं, “ईश्वर पूर्व विधान के अनुसार जिनके प्रति दयालु है, केवल उन्हींका उद्धार होगा, और शेष सब सिर पटककर भी मर जायँ, तो भी वह इस अन्तरंग दल में प्रवेश नहीं पा सकता है।” तुम मुझे एक भी ऐसा द्वैतवादात्मक धर्म बता दो, जिसके भीतर यह संकीर्णता न हो। यही कारण है कि ये सब धर्म सदैव परस्पर युद्ध करते रहेंगे, और वे करते भी यही रहे हैं। (२/९६-९७)
१६. यह पुनर्जन्म का सिद्धान्त मानवात्मा के अमरत्व सम्बन्धी दूसरे सिद्धान्त के साथ ही साथ चलता है। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जिसका किसी एक बिन्दु पर अन्त तो होता हो, पर वह अनादि हो और न कोई ऐसी ही वस्तु है, जिसका किसी एक बिन्दु पर प्रारम्भ हो, पर उसका अन्त न हो। हम इस विकट असम्भाव्यता में कदापि विश्वास नहीं कर सकते कि ‘मानवात्मा’ का कोई आदि है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त आत्मा की स्वतंत्रता को प्रतिपादित करता है। (२/२२९)
१७. जो शून्य से आया है, वह अवश्य शून्य में ही मिल जायगा। हममें से कोई भी शून्य से नहीं आया, इसलिए हम शून्य में नहीं मिट जायँगे। हम अनन्त काल से विद्यमान हैं और रहेंगे, और विश्व-ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो हम लोगों का अस्तित्व मिटा सके। इस पुनर्जन्मवाद से हमें किसी तरह डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वही तो मानव की नैतिक उन्नति का प्रधान सहायक है। चिन्तनशील व्यक्तियों का यही न्यायसंगत सिद्धान्त है। यदि भविष्य में चिरकाल के लिए तुम्हारा अस्तित्व रहना सम्भव हो, तो यह भी सच है कि अनादि काल से तुम्हारा अस्तित्व था; इसके अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता। (२/११३)
१८. आत्मा न कभी आती है, न जाती है; यह न तो कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। प्रकृति ही आत्मा के सम्मुख गतिशील है और इस गति की छाया आत्मा पर पड़ती रहती है। भ्रमवश आत्मा सोचती है कि प्रकृति नहीं, बल्कि वही गतिशील है। जब तक आत्मा ऐसा सोचती रहती है, तब तक वह बन्धन में रहती है; किन्तु जब उसे यह पता चल जाता है कि वह सर्वव्यापक है, तो वह मुक्ति का अनुभव करती है। जब तक आत्मा बन्धन में रहती है तब तक उसे जीव कहते हैं। इस तरह तुमने देखा कि समझने की सुविधा के लिए ही हम ऐसा कहते हैं कि आत्मा आती है और जाती है, ठीक वैसे ही, जैसे खगोलशास्त्र में सुविधा के लिए यह कल्पना करने के लिए कहा जाता है कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है, यद्यपि वस्तुतः बात वैसी नहीं है। तो जीव, अर्थात् आत्मा, ऊँचे या नीचे स्तर पर आता-जाता रहता है। यही सुप्रसिद्ध पुनर्जन्मवाद का नियम है; सृष्टि इसी नियम से बद्ध है। (२/२१९)
१९. ज्ञानयोगी के जीवन का उद्देश्य यही जीवन्मुक्त होना है। वे ही जीवन्मुक्त हैं, जो इस जगत् में अनासक्त होकर वास कर सकते हैं। वे जल के पद्म-पत्र के समान रहते हैं – जैसे जल में रहने पर भी जल उसे कदापि भिगो नहीं सकता, उसी प्रकार वे जगत् में निर्लिप्त भाव से रहते हैं। वे मनुष्य जाति में सर्वश्रेष्ठ हैं, केवल इतना ही क्यों, सकल प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। क्योंकि उन्होंने उस पूर्ण पुरुष के सहित अभेद भाव उपलब्ध किया है; उन्होंने उपलब्धि की है कि वे भगवान् के सहित अभिन्न हैं। (८/७१)
२०. जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए अतीत जीवन के शुभ संस्कार, शुभ-वेग ही बच रहता है। शरीर में वास करते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं; उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सच्चिन्तन ही कर सकता है, उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहे सर्वत्र मानव जाति के लिए महान् आशीर्वाद होती है। (२/ ३८)
२१. कुछ लोग हैं, जो अद्वैतवाद को समझते तो हैं नहीं, पर उसके उपदेशों को उपहास का विषय बनाते हैं। वे कहते हैं, “शुद्ध और अशुद्ध क्या है? पुण्य और पाप में अन्तर क्या है? यह सब मानवीय अन्धविश्वास है;” और वे अपने कार्यों में कोई नैतिक प्रतिबन्ध नहीं रखते। यह तो पूर्ण शठता है और ऐसी बातों का उपदेश दिये जाने से बड़ी से बड़ी हानि हो सकती है।
यह शरीर पुण्य और पाप – हानिरहित पुण्य एवं हानिप्रद पापरूप दो प्रकार के कार्यों से बना है। एक काँटा मेरे शरीर में चुभा है, और मैं उसे निकालने के लिए दूसरा काँटा उठाता हूँ और तब दोनों को फेंक देता हूँ। पूर्णता चाहनेवाला व्यक्ति, पुण्य का काँटा लेता है और उससे पाप का काँटा निकालता है। फिर भी वह पूर्ण व्यक्ति जीवित रहता है और केवल पुण्य रह जाने से जो क्रिया का वेग उसमें रहता है, वह निश्चय ही पुण्य का होता है। जीवन्मुक्त में किंचित् पुण्य रह जाता है और वह जीवित रहता है, पर जो कुछ वह करता है, अवश्य ही पुण्य होता है। (१/२९४)
२२. अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूँ कि तुम्हारी प्रकृति असत् है, और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं, इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने-धोने में ही बिताओ, तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा, वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे। ऐसा करना तुम्हें सत्पथ के बजाय असत्पथ दिखाना होगा। यदि हज़ारों साल इस कमरे में अँधेरा रहे और तुम कमरे में आकर ‘हाय! बड़ा अँधेरा है! बड़ा अँधेरा है!’ कह कहकर रोते रहो, तो क्या अँधेरा चला जायगा? कभी नहीं। एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा। अतएव जीवन भर ‘मैंने बहुत दोष किये हैं, मैंने बहुत अन्याय किया है’, यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा? हममें बहुत से दोष हैं, यह किसीको बतलाना नहीं पड़ता। ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा। अपने प्रकृतस्वरूप को पहचानो, प्रकृत ‘मैं’ को – उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल, नित्यशुद्ध ‘मैं’ को, प्रकाशित करो – प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ। मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें, बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें। और उसकी निन्दा न कर, यह कह सकें, ‘हे स्वप्रकाशक, ज्योतिर्मय, उठो! हे सदाशुद्धस्वरूप उठो! हे अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, उठो! आत्मस्वरूप प्रकाशित करो। तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो, वे तुम्हें सोहते नहीं।’ अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना का उपदेश देता है। निजस्वरूप स्मरण, सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण, उसीको सदा अनन्त, सर्वशक्तिमान, सदाशिव, निष्काम कहकर उसका स्मरण – यही एकमात्र प्रार्थना है। यह क्षुद्र ‘मैं’ उसमें नहीं रहता, क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते। और वह अकाम है, इसीलिए अभय और ओजस्वरूप है, क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है। जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं, वह किससे डरेगा? कौन सी वस्तु उसे डरा सकती है? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है? अशुभ, विपत्ति डरा सकती है? कभी नहीं। अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं, तो हमें यह मानना होगा कि हमारा ‘मैं-पन’ इसी क्षण से मृत है। फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हुँ, अमुक अमुक हूँ, यह सब भाव नहीं रह जाता, ये अंधविश्वास मात्र थे, और शेष रहता है वही नित्य शुद्ध, नित्य ओजस्वरूप, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञस्वरूप, और तब हमारा सारा भय चला जाता है। कौन इस सर्वव्यापी ‘मैं’ का अनिष्ट कर सकता है? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है। तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है। हम देखते हैं, वे भी यही आत्मास्वरूप हैं, किन्तु वे यह जानते नहीं। अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा – उनके इस अनन्तस्वरूप के प्रकाशनार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी। मैं देखता हूँ कि जगत् में इसीके प्रचार की सबसे अधिक आवश्यकता है। ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं, बहुतेरे पर्वतों से भी पुराने। सभी सत्य सनातन हैं। सत्य व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है। कोई भी जाति, कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहने का दावा नहीं कर सकता। सत्य ही सब आत्माओं का यथार्थस्वरूप है। किसी भी व्यक्तिविशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है। किन्तु हमें उसे व्यावहारिक और सरल बनाना होगा, (क्योंकि उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल होते हैं) जिससे वह समाज के हर रंध्र में व्याप्त हो जाय, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके, तथा आबालवृद्ध-वनिता सभी उसे जान सकें। ये न्याय के कूट विचार, दार्शनिक मीमांसाएँ, ये सब मतवाद और क्रिया-काण्ड – इन सबने किसी समय भले ही उपकार किया हो, किन्तु आओ, हम सब आज से – इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें, जब प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा और उसका अन्तःस्थ सत्य ही उसकी उपासना का विषय होगा। (८/६२-६३)
२३. वेदान्त यह कहता है कि ऐसा नहीं कि यह केवल वन अथवा पहाड़ी गुफाओं में उपलब्ध हो सकता हो, वरन् हम यह देख ही चुके हैं कि पहले जिन लोगों ने इस सत्यसमूह का आविष्कार किया था, वे वन अथवा पहाड़ी गुफाओं में नहीं रहते थे, साथ ही वे सामान्य मनुष्य भी नहीं थे, वरन् वे लोग ऐसे थे (हम लोगों के इस विश्वास के विशेष कारण है), जो विशेष रूप से कर्मठ जीवन बिताते थे, जिन्हें सैन्य-संचालन करना पड़ता था, जिन्हें सिंहासन पर बैठकर प्रजावर्ग का हानि-लाभ देखना होता था। इसके अतिरिक्त उस समय राजागण ही सर्वेसर्वा थे – आजकल जैसे कठपुतली नहीं। फिर भी वे लोग इन सब तत्त्वों का चिन्तन करने तथा उनको जीवन में परिणत करने और मानव जाति को शिक्षा देने का समय निकाल लेते थे। अतएव उनकी अपेक्षा हम लोगों को इन सब तत्त्वों का अनुभव होना तो और भी सहज है, क्योंकि हमारा जीवन उनकी तुलना में अवकाश का जीवन है। हम अपेक्षाकृत सारे समय खाली ही रहते हैं, हमारे पास करने को बहुत कम रहता है, अतः हमारे लिए उस सत्य का साक्षात्कार न कर सकना बड़ी लज्जाजनक बात है। पुरातन सर्वेसर्वा सम्राटों की आवश्यकताओं की तुलना में हमारी आवश्यकताएँ तो कुछ भी नहीं है। कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अवस्थित विराट सेना के परिचालक अर्जुन की जितनी आवश्यकता थी, हमारी आवश्यकता उसकी तुलना में नगण्य है, तब भी उस युद्ध-कोलाहल के बीच में भी, वे उच्चतम दर्शन को सुनने और उसे कार्यान्वित करने का समय पा सके – इसलिए अपने इस अपेक्षाकृत स्वाधीन आराममय जीवन में हमें उतना कर सकना चाहिए। हम लोग यदि ठीक प्रकार से समय बितायें, तो हम देखेंगे कि हम जितना सोचते और समझते हैं उसकी अपेक्षा हमारे पास कहीं अधिक समय है। हम लोगों को जितना अवकाश है, उसमें यदि हम सचमुच चाहें, तो एक नहीं पचास आदर्शों का अनुसरण कर सकते हैं, किन्तु आदर्श को हमें कभी नीचा नहीं करना चाहिए। हमारे जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति की आशंका है ऐसे व्यक्तियो से जो हमारे व्यर्थ अभावों और वासनाओं के लिए अनेक प्रकार के वृथा कारण दिखाते हैं और हम लोग भी यही सोचते हैं कि हम लोगों का इससे बड़ा और कोई आदर्श नहीं हो सकता, किन्तु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। वेदान्त इस प्रकार की शिक्षा कभी नहीं देता। प्रत्यक्ष जीवन को आदर्श के साथ समन्वित करना पड़ेगा – वर्तमान जीवन को अनन्त जीवन के साथ एकरूप करना होगा। (८/७)
२४. हम जिवित ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं। मैंने सम्पूर्ण जीवन ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा। तुमने भी नहीं देखा। इस कुर्सी को देखने से पहले तुम्हें ईश्वर को देखना पड़ता है, उसके बाद उसीमें और उसके माध्यम से कुर्सी को देखना पड़ता है। वह दिन-रात जगत् में रहकर प्रतिक्षण ‘मैं हूँ’ ‘मैं हूँ’ कह रहा है। जिस क्षण तुम बोलते हो ‘मैं हूँ’, उसी क्षण तुम उस सत्ता को जान रहे हो। तुम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जाओगे, यदि तुम उसे अपने हृदय में, हर प्राणी में नहीं देख पाते? त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी। त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि, त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः॥ -‘तुम स्त्री, तुम पुरुष, तुम कुमार, तुम कुमारी हो, तुम्हीं वृद्ध होकर लाठी के सहारे चल रहे हो, तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् में भिन्न भिन्न रूपों में प्रकट हुए हो। तुम्हीं यह सब हो।’ कितना अद्भुत ‘जीवित ईश्वर’ है – संसार में वह ही एक मात्र सत्य है। यह धारणा अनेक लोगों को उस परंपरीण ईश्वर से घोर विरोधात्मक लगती है, जो किसी विशेष स्थान में किसी पर्दे के पीछे छिपा बैठा है, और जिसे कोई कभी नहीं देख सकता। पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण करें, उनकी भर्त्सना सुनते रहें, और उनके द्वारा निर्दिष्ट लीक पर चलते रहें, तो मरते समय वे हमें एक मुक्तिपत्र देंगे और तब हम ईश्वर-दर्शन कर सकेंगे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारा स्वर्गवाद इस अनर्गल पुरोहित-प्रपंच के विविध रूपों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
निर्गुणवाद निस्सन्देह अनेक चीजें नष्ट कर डालता है; वह पुरोहितों, धर्मसंघों और मन्दिरों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है। भारत में इस समय दुर्भिक्ष है, किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं, जिनमें से प्रत्येक में एक राजा को भी खरीद लेने योग्य बहुमूल्य रत्नों की राशि सुरक्षित है। यदि पुरोहित लोग इस निर्गुण ब्रह्म की शिक्षा दें, तो उनका व्यवसाय छिन जायगा। किन्तु हमें उसकी शिक्षा निःस्वार्थ भाव से, बिना पुरोहित-प्रपंच के देनी होगी। तुम भी ईश्वर, मैं भी वही – तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे? कौन किसकी उपासना करे? तुम्हीं ईश्वर के सर्व श्रेष्ठ मन्दिर हो; मैं किसी मन्दिर, किसी प्रतिमा या किसी बाइबिल की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा। लोग इतना परस्पर विरोधी विचार क्यों करते हैं? लोग कहते हैं, हम ठेठ प्रत्यक्षवादी हैं; ठीक बात है, किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और अधिक प्रत्यक्ष क्या हो सकता है? मैं तुम्हें देख रहा हूँ, तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो। मुसलमान कहते हैं, अल्लाह के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है; किन्तु वेदान्त कहता है, ऐसा कुछ है ही नहीं जो ईश्वर न हो। (८/२८-२९)
२५. वेदान्त सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक ईश्वर का निरूपण करता है। इस राष्ट्र से तो राजराजेश्वर की विदाई हो चुकी है। लेकिन वेदान्त से तो स्वर्ग का साम्राज्य सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही लुप्त हो गया था।
वेदान्त केवल अध्यात्म का ही विषय है।
ईश्वर आत्मा है और आत्मा एवं सत्य के द्वारा ही उसकी उपासना होनी चाहिए। (९/८०-८१)
२६. ये वे बातें हैं, जो वेदान्त से अपेक्षित नहीं हैं। कोई धर्मग्रंथ नहीं। शेष मनुष्य जाति से पृथक् कोई मनुष्य नहीं, ‘तुम कीट मात्र और हम जगदीश्वर’ ऐसा कुछ नहीं। यदि तुम जगदीश्वर प्रभु हो तो मैं भी जगदीश्वर प्रभु हूँ। अतः वेदान्त पाप नहीं मानता। भूलें जरूर हैं, लेकिन पाप नहीं। कालान्तर में सभी ठीक होनेवाला है। कोई शैतान नहीं – ऐसी कोई बकवास नहीं। वेदान्त के अनुसार जिस क्षण तुम अपने को या इतर जन को पापी समझते हो, वही पाप है। इसीसे अन्य सब भूलों का या उनका जिन्हें बहुधा पाप की संज्ञा दी जाती है, सूत्रपात होता है। हमारे जीवन में अनेक भूलें हुई हैं। फिर भी आगे हम बढ़ते ही रहे हैं। हमसे भूलें हुईं, इसमें हमारा गौरव है! बीते जीवन का सिंहावलोकन करो। यदि तुम्हारी आज की हालत अच्छी है, तो उसका श्रेय सफलताओं के साथ साथ पिछली भूलों को भी मिलना चाहिए। सफलता भी गौरवशालिनी! विफलता भी गौरवशालिनी!
वेदान्त पाप और पापी की स्थापना नहीं करता। वह (ईश्वर) एक ऐसी सत्ता है, जिससे हम कदापि आतंकित नहीं होगे; क्योंकि वह हमारी अपनी आत्मा है। उसमें भीति जगानेवाले ईश्वर का आतंक नहीं। केवल एक ही सत्ता है, जिससे हमें डर नहीं है, वह ईश्वर है। तो क्या ईश्वर से डरनेवाला प्राणी ही यथार्थ में सबसे बड़ा अंधविश्वासी नहीं है? निज छाया से कोई भयभीत भले ही हो उठे, किन्तु वह भी निज से संत्रस्त नहीं है। ईश्वर मानव की ही आत्मा है। वही एक ऐसी सत्ता है, जिससे तुम कदापि भयभीत नहीं हो सकते। ईश्वर का भय व्यक्ति के अन्तराल में घर कर जाय, वह उससे थर्रा उठे, ये सब बातें अनर्गल नहीं तो और क्या हैं? ईश्वर की कृपा कहो कि हम सब पागलखाने में नहीं हैं! यदि हममें से अधिकांश पागल न हो गये हों, तो हम ‘ईश्वरभीति’ जैसी धारणा का आविष्कार ही क्यों करें? भगवान् बुद्ध का कथन था कि न्यूनाधिक मात्रा में सारी मानवता विक्षिप्त है। लगता है कि यह पूर्णतः सत्य है।
कोई धर्मग्रंथ नहीं, कोई व्यक्ति (अवतार) नहीं, कोई सगुण ईश्वर नहीं। इन सभी को जाना होगा। फिर इन्द्रियों को भी जाना पड़ेगा। हम इन्द्रियों के दास नहीं रह सकते। अभी हम नदी में ठंड से ठिठुरकर मरनेवालों की भाँति, आबद्ध हैं। सो जाने की ऐसी बलवती ईप्सा द्वारा वे लोग आक्रान्त हैं कि जब उनके साथी उन्हें मृत्यु से सजग कर जाग्रत करना चाहते हैं, तो वे कहते हैं, “जान जाय बला से। लेकिन नींद हराम न होने पाये।” हम इन्द्रिय-सुख की सस्ती वस्तु के शिकार हैं, भले ही उससे हमारा सर्वनाश ही क्यों न हो। हमने यह भुला दिया है कि जीवन में और अधिक महान् वस्तुएँ हैं। (९/८१-८२)
२७. वेदान्त की शिक्षा क्या है? प्रथमतः, यह शिक्षा देता है कि सत्य-दर्शन के लिए तुम्हें अपने से भी बाहर जाने की जरूरत नहीं। सभी अतीत और सभी अनागत इसी वर्तमान में निहित हैं। कभी किसीने अतीत को नहीं देखा। क्या तुममें से किसीने अतीत को देखा है? जब यह सोचते हो कि तुम अतीत को जानते हो, तो तुम केवल वर्तमान में ही अतीत की कल्पना करते हो। भविष्य देखने के लिए तुम्हें इसे वर्तमान में उतार लाना पड़ेगा, जो वर्तमान यथार्थ सत्य है – शेष सब कल्पना है। वर्तमान ही सब कुछ है। केवल वही ‘एक’ है – एकमेवाद्वितीयम्। जो कुछ है, सब इसीमें है। अनन्त काल का एक क्षण दूसरे प्रत्येक क्षण की ही भाँति अपने में पूर्ण और सबको समाहित कर लेनेवाला है। जो कुछ है, था और होगा, सब इसी वर्तमान में है। इससे परे किसी कल्पना में कोई प्रवृत्त हो तो वह विफल मनोरथ होगा। (९/८२-८३)
२८. इसलिए वेदान्त का प्रतिपाद्य है ‘विश्व का एकत्व’, विश्वबन्धुत्व नहीं। मैं भी वैसा हूँ, जैसा एक मनुष्य है, एक जानवर है – बुरा, भला या और कुछ भी। सब परिस्थितियों में यह एक ही देह, एक ही मन और एक ही आत्मा है। आत्मा का अंत नहीं। कहीं कोई विनाश नहीं, देह का भी अंत नहीं। मन भी मरता नहीं है। देह का अन्त हो कैसे? एक पत्ती झड़ जाय तो क्या पेड़ का अंत हो जायगा? यह विराट् विश्व ही मेरी देह है। देखो, कैसी इसकी अविकल परम्परा है। सारे मन मेरे मन हैं। सबके पैरों से मैं ही चलता हूँ। सबके मुँह से मैं ही बोलता हूँ। सबके शरीर में मेरा ही निवास है। (९/८३)
[१] श्रीमद्भगवद्गीता ३/२६