२. समस्त मानव जाति का, समस्त धर्मों का चरम लक्ष्य एक ही है, और वह है भगवान् से पुनर्मिलन, अथवा दूसरे शब्दों में उस ईश्वरीय स्वरूप की प्राप्ति, जो प्रत्येक मनुष्य का प्रकृत स्वभाव है। परन्तु यद्यपि लक्ष्य एक ही है, तो भी लोगों के विभिन्न स्वभावों के अनुसार उसकी प्राप्ति के साधन भिन्न भिन्न हो सकते हैं।
लक्ष्य और उसकी प्राप्ति के साधनों – इन दोनों को मिलाकर ‘योग’ कहा जाता है। ‘योग’ शब्द संस्कृत के उसी धातु से व्युत्पन्न हुआ है, जिससे अंग्रेजी शब्द ‘योक’ (Yoke) – जिसका अर्थ है ‘जोड़ना’, अर्थात् अपने को उस परमात्मा से जोड़ना, जो कि हमारा प्रकृत स्वरूप है। इस प्रकार के योग अथवा मिलन के साधन कई हैं, पर उनमें मुख्य हैं कर्मयोग, भक्तियोग, राजयोग और ज्ञानयोग। (३/१६९)
३. जिस प्रकार हर एक विज्ञानशास्त्र के अपने अलग अलग तरीके होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक धर्म में भी है। धर्म के चरम लक्ष्य की प्राप्ति के तरीकों या साधनों को हम योग कहते हैं। विभिन्न प्रकृतियों और स्वभावों के अनुसार योग के भी विभिन्न प्रकार हैं। उनके निम्नलिखित चार विभाग हैं –
कर्मयोग – इसके अनुसार मनुष्य कर्म और कर्तव्य के द्वारा अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति करता है।
भक्तियोग – इसके अनुसार अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति सगुण ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम के द्वारा होती है।
राजयोग – इसके अनुसार मनुष्य अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति मनःसंयम के द्वारा करता है।
ज्ञानयोग – इसके अनुसार अपने ईश्वरीय स्वरूप की अनुभूति ज्ञान के द्वारा होती है।
ये सब एक ही केन्द्र – भगवान् – की ओर ले जानेवाले विभिन्न मार्ग हैं। (३/१६९-७०)
४. हमारा प्रत्येक योग बिना किसी दूसरे योग की सहायता के भी मनुष्य को पूर्ण बना देने में समर्थ है, क्योंकि उन सबका लक्ष्य एक ही है। कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग – सभी मोक्ष-लाभ के लिए सीधे और स्वतंत्र उपाय हो सकते हैं। (३/६७)
५. इसीको ‘वैराग्य’ कहते हैं, इसीको कर्मयोग की नींव – अनासक्ति – कहते हैं। मैंने तुम्हें बताया ही है की अनासक्ति के बिना किसी भी प्रकार की योग-साधना नहीं हो सकती। अनासक्ति ही समस्त योग-साधना की नींव है। हो सकता है कि जिस मनुष्य ने अपना घर छोड़ दिया है, अच्छे वस्त्र पहनना छोड़ दिया है, अच्छा भोजन करना छोड़ दिया है और जो मरुस्थल में जाकर रहने लगा है, वह भी एक घोर विषयासक्त व्यक्ति हो। उसकी एकमात्र सम्पत्ति – उसका शरीर – ही उसका सर्वस्व हो जाय और वह उसीके सुख के लिए सतत प्रयत्न करे। (३/७४-७५)
६. वैराग्य अथवा त्याग ही इन समस्त विभिन्न योगों की धुरी है। कर्मी कर्मफल त्याग करता है। भक्त उन सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रेमस्वरूप के लिए समस्त क्षुद्र प्रेमों का त्याग करता है; योगी जो कुछ अनुभव करता है, उसका परित्याग करता है; क्योंकि उसके दर्शन की शिक्षा यही है कि प्रकृति यद्यपि आत्मा की अभिज्ञता के लिए है, वह अन्त में उसे समझा देती है कि वह प्रकृति में अवस्थित नहीं है, किन्तु प्रकृति से नित्य पृथक् है। ज्ञानी सब कुछ त्याग करता है, क्योंकि उसके दर्शन शास्त्र का सिद्धान्त यह है कि भूत, भविष्यत्, वर्तमान किसी काल में भी प्रकृति का अस्तित्व नहीं है। (६/२९०)
७. हमारे मतानुसार मन की समस्त शक्तियों को एकमुखी करना ही ज्ञान-लाभ का एकमात्र उपाय है। बहिर्विज्ञान में बाह्य विषयों पर मन को एकाग्र करना होता है और अन्तर्विज्ञान में मन की गति को आत्माभिमुखी करना पड़ता है। मन की इस एकाग्रता को ही हम योग कहते हैं।
योगी कहते हैं कि इस एकाग्रता शक्ति का फल अत्यन्त महान् है। उनका कहना है कि मन की एकाग्रता के बल से संसार के सारे सत्य – बाह्य और अन्तर दोनों जगत् के सत्य – करामलकवत् प्रत्यक्ष हो जाते हैं। (१०/३८३)
८. योगी दावा करते हैं कि मनुष्य-देह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ओज सबसे उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तक में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान और आध्यात्मिक बल से बली होता है। एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। वह जो कुछ कार्य करता है, उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति! (१/८१)
९.शरीर में जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका उच्चतम विकास यह ओज है। यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल रूपान्तरण का है – एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है, वही क्रमशः आभ्यन्तरिक शक्ति में परिणत हो जायगी। आज जो शक्तियाँ पेशियों में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जायँगी। योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति काम-क्रिया, काम-चिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, उसका दमन करने पर वह सहज ही ओज में परिणत हो जाती है। और हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं। वे सारी काम-शक्ति को ओज में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं। कामजयी स्त्री-पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। मनुष्य यह अनुभव करता है कि अगर वह कामुक हो, तो उसका सारा धर्मभाव चला जाता है, चरित्र-बल और मानसिक तेज नष्ट हो जाता है। इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन जिन सम्प्रदायों में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है। इसीलिए विवाह-त्यागी संन्यासी-दल की उत्पत्ति हुई है। इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से – तन-मन-वचन से – पालन करना नितान्त आवश्यक है। ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है; क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क का विषम विकार पैदा हो सकता है। (१/८१-८२)
१०. मनुष्य को पूर्ण विकसित बनाना – यही इस शास्त्र का उपयोग है। युगानुयुग प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं। जैसे एक काठ का टुकड़ा केवल खिलौना बन समुद्र की लहरों द्वारा इधर-उधर फेंका जाता रहता है, उसी प्रकार हमें भी प्रकृति के जड़-नियमों के हाथों खिलौना बनने की आवश्यकता नहीं है। यह विज्ञान चाहता है कि तुम शक्तिशाली बनो, कार्य को अपने ही हाथ में लो, प्रकृति के भरोसे मत छोड़ो और इस छोटे से जीवन के उस पार हो जाओ। यही वह उदात्त ध्येय है। (४/१७६)
११. इन सारी योग-प्रणालियों में जो कुछ गुह्य या रहस्यात्मक है, सब छोड़ देना पड़ेगा। जिससे बल मिलता है, उसीका अनुसरण करना चाहिए। अन्यान्य विषयों में जैसा है, धर्म में भी ठीक वैसा ही है – जो तुमको दुर्बल बनाता है, वह समूल त्याज्य है। रहस्य-स्पृहा मानव-मस्तिष्क को दुर्बल कर देती है। इसके कारण ही आज योगशास्त्र नष्ट सा हो गया है। (१/४४)
१२. वही योगी है, जो अपने को संपूर्ण विश्व में, और संपूर्ण विश्व को अपने में देखता है। (२/२५४)
१३. यह बच्चों का खिलवाड़ नहीं और न कोई सनक है कि उसमें पड़कर एक दिन अभ्यास किया जाय और दूसरे दिन त्याग दिया जाय। यह जीवन भर का काम है और लक्ष्य की सिद्धि में जो भी मूल्य चुकाना पड़े, वह सर्वथा उचित है, और वह लक्ष्य ईश्वर से अपने पूर्ण एकत्व के बोध जैसा महान् है। (४/९६)