१. परमात्मा से एकीभूत जीवात्मा ही शक्तिमान है, और कोई शक्तिमान नहीं। तुम्हारी बाइबिल में ही क्या तुम्हें मालूम है कि नाजरथ के ईसा मसीह की अद्भुत शक्ति का रहस्य क्या था? वही अमित, अनन्त शक्ति, जिसने हत्यारों की हँसी उड़ायी और उनको आशीर्वाद दिया, जो उनकी जान लेना चाहते थे। वह यह था कि ‘मैं तथा मेरे पिता, एक हैं।’ यह वही प्रार्थना थी कि ‘परम पिता! जिस प्रकार मैं तुझसे एक हूँ, उसी प्रकार उन सबको मुझसे एक कर दे।’ (२/२९०)

२. निर्गुण भाव से अनुप्राणित होकर ही ईसा मसीह ने कहा है – ‘मैं और मेरे पिता एक हैं।’ इसी प्रकार का व्यक्ति लाखों व्यक्तियों में शक्तिसंचार करने में समर्थ होता है। और यह शक्ति सहस्रों वर्ष तक मनुष्यों के प्राणों में परित्राण देनेवाली शुभ-शक्ति का संचार करती रहती है। हम यह भी जानते हैं कि वे महापुरुष अद्वैतवादी थे, इसीलिए दूसरों के प्रति दयाशील थे। उन्होंने सर्वसाधारण को ‘हमारा स्वर्गस्थ पिता’ की शिक्षा दी थी। सगुण ईश्वर से उच्चतर अन्य किसी भाव की धारणा न कर सकनेवाले साधारण लोगों को उन्होंने स्वर्ग में रहनेवाले पिता से प्रार्थना करने का उपदेश दिया। जो कुछ अधिक सूक्ष्म भाव ग्रहण कर सकते थे, उनसे उन्होंने कहा, “मैं लता हूँ, तुम शाखाएँ हो।” किन्तु अपने जिन शिष्यों के प्रति उन्होंने अपने को अधिक पूर्णता से प्रकट किया, उनसे उन्होंने सर्वोच्च सत्य की घोषणा की – ‘मैं और मेरे पिता एक हैं।’ (२/९७)

३. ईसा के जीवन पर लिखी गयी विभिन्न आख्यायिकाएँ हमने पढ़ी हैं। उनकी जीवनी के समालोचक विद्वज्जनों, उनकी ग्रन्थावलियों तथा ‘उच्चतर भाष्यादि’(१) से भी हमारा परिचय है। इन सब आलोचनाओं द्वारा क्या सम्पदित किया गया है, इससे भी हम अज्ञ नहीं हैं। हमें यहाँ इस विवाद में नहीं पड़ना है कि बाइबिल के नव व्यवस्थान का कितना अंश सत्य है, अथवा उसमें वर्णित ईसा मसीह का जीवन-चरित्र कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य पर आधारित है। ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक नव व्यवस्थान लिखा जा चुका था या नहीं, अथवा ईसा के जीवन-चरित्र में कितना सत्यांश है, इससे भी हमें कोई प्रयोजन नहीं। किन्तु इन सब लेखों का आधार एक ऐसी वस्तु है, जो अवश्य सत्य है, अनुकरणीय है। मिथ्या प्रलाप करने के लिए भी हमें किसी सत्य की नकल करनी पड़ती है, और सत्य सदैव वास्तविक ही होता है। जिसका कभी कोई अस्तित्व ही नहीं था, उसका अनुकरण भी कैसा? जिसे किसीने कभी देखा नहीं, उसकी नकल कैसे हो सकती है? इसलिए यह अनुमान करना स्वाभाविक है कि बाइबिल की कथाएँ कितनी ही अतिरंजित, अतिशयोक्तिपूर्ण क्यों न हों, उस कल्पना का अवश्य कोई आधार था – निश्चित ही उस युग में, जगत् में किसी महाशक्ति का आविर्भाव हुआ था, किसी महान् आध्यात्मिक शक्ति का अपूर्व विकास हुआ था – और उसीकी आज हम चर्चा कर रहे हैं। उस महाशक्ति के अस्तित्व में जब हमें कोई सन्देह नहीं है, तब हमें पण्डित वर्ग द्वारा की गयी आलोचनाओं का क्या भय? यदि एक प्राच्यदेशीय के रूप में मैं नाजरथ-निवासी ईसा की उपासना करूँ, तो मेरे लिए ऐसा करने की केवल एक ही विधि है – और वह है उनकी ईश्वर के समान आराधना करना। उनकी अर्चना की और कोई विधि मैं नहीं जानता। (७/२२३)

४. सच्चे सुख और यथार्थ सफलता का महान् रहस्य यह है कि बदले में कुछ भी न चाहनेवाला बिल्कुल निःस्वार्थी व्यक्ति ही सबसे अधिक सफल व्यक्ति होता है। यह तो एक विरोधाभास सा है; क्योंकि क्या हम यह नहीं जानते कि जो निःस्वार्थी हैं, वे इस जीवन में ठगे जाते हैं, उन्हें चोट पहुँचती है? ऊपरी तौर से देखो, तो यह बात सच मालूम होती है। ‘ईसा मसीह निःस्वार्थी थे, पर तो भी उन्हें सूली पर चढ़ाया गया,’ – यह सच है; किन्तु हम यह भी जानते हैं कि उनकी निःस्वार्थपरता एक महान् विजय का कारण है – और वह विजय है कोटि कोटि जीवनों पर सच्ची सफलता के वरदान की वर्षा। (९/१७८)

५. आधुनिक मनुष्य से वैराग्य की बात कहना अत्यन्त कठिन है। अमेरिका में मेरे बारे में लोग कहते थे कि मैं पाँच हजार वर्ष तक मृत और विस्मृत एक देश से आकर वैराग्य का उपदेश दे रहा हूँ। इंग्लैंण्ड के दार्शनिक भी शायद ऐसा ही कहें। पर यह भी सत्य है कि धर्म का एकमात्र पथ यही है। त्याग दो और विरक्त बनो। ईसा ने क्या कहा है? ‘जो मेरे निमित्त अपने जीवन का त्याग करेगा, वही जीवन को प्राप्त करेगा।’ पूर्णता की प्राप्ति के लिए त्याग ही एकमात्र साधन है, इसकी शिक्षा उन्होंने बारंबार दी है। (२/५४-५५)

६. ‘पवित्रहृदय व्यक्ति ध्यन्य हैं, क्योंकि वे ईशदर्शन करेंगे।’ ‘महान् स्वर्ग-राज्य तुम्हारे ही अन्तर में विराजमान है।’ और इसीलिए का नाजरथ यह महान् पैगम्बर पूछता है, ‘जब स्वर्ग तुम्हारे अन्तर में विराजमान है, तो उसे ढूँढ़ने अन्यत्र कहाँ जा रहे हो?’ अपनी आत्मा को माँज-धोकर स्वच्छ करो, और वह तत्काल मिल जायगा। वह तो पहले से ही तुम्हारा है। यदि वह तुम्हारा न होता, तो तुम कैसे पा सकते? तुम उसके अधिकारी हो। (७/२२६)

७. चर्चों में सिद्धान्त, तत्त्वज्ञान इत्यादि का उपदेश चाहे जितना हो, पर पूजा के विषय में, धर्म के यथार्थ व्यावहारिक अंश के विषय में वैसा ही करना चाहिए, जैसा ईसा ने कहा है, ‘जब तुम प्रार्थना करो, तब अपने कमरे के अन्दर चले जाओ और जब दरवाजा बन्द कर लो, तब अपने पिता से प्रार्थना करो, जो गुप्त है।’ (९/५६-५७)

८. उनके धर्म-प्रचार काल के तीन वर्ष तो मानो एक घनीभूत युग के सदृश थे, जिसके प्रस्फुटन में पूरी उन्नीस शताब्दियाँ लग गयी हैं, और न जाने कितनी और लगेंगी! मेरे और तुम्हारे जैसे क्षुद्र जन केवल अल्पमात्र शक्ति के वाहक हैं। कुछ क्षण, कुछ घटिकाएँ, कतिपय मास, ज्यादा से ज्यादा कुछ वर्ष, बस ये उस अल्प शक्ति के व्यय के लिए, उसके पूर्ण प्रसरण और अधिकतम विकास के लिए पर्याप्त हैं; और उसके बाद हम सदा के लिए चल बसते हैं। किन्तु हमारे अवतीर्ण होनेवाले इस असाधारण पुरुष की ओर जरा देखो। कई शताब्दियाँ बीत गयीं, किन्तु वे जगत् में जिस शक्ति का संचार कर गये, उसका प्रसार-कार्य अभी तक रुका नहीं, उसका पूर्ण व्यय अभी तक हुआ नहीं। ज्यों ज्यों युग पर युग बीतते जा रहे हैं, त्यों त्यों वह नूतन बल से बलवती होती जा रही है। (७/२१५१६)

९. त्रित्ववादियो(२) (Trinitarians) के ईसा हमसे बहुत ही उच्च स्तर पर स्थित हैं। एकत्ववादियों (Unitarians) के ईसा एक साधु पुरुष मात्र हैं। इन दोनों में कोई भी हमारी सहायता नहीं कर सकता। किन्तु जो ईसा ईश्वर के अवतार हैं, जो अपने ईश्वरत्व को नहीं भूलते, वे ईसा ही हमारी सहायता कर सकते हैं। उनमें किसी प्रकार की अपूर्णता नहीं है। इन सभी अवतारों को अपने ईश्वरत्व का ज्ञान सदैव रहता है, और वह उन्हें अपने जन्मकाल से ही रहता है। वे उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है तो भी जो दूसरों को आनंद देने के लिए रंगमंच पर बारम्बार आते रहते हैं। इन महापुरुषों को संसार की कोई वस्तु नहीं छू पाती। वे हमें कुछ काल तक शिक्षा देने भर के लिए हमरा रूप और सीमाएँ धारण करके आते हैं, वे ऐसा अभिनय करते हैं, मानो वे हमारे ही सदृश बद्ध हैं, किन्तु वास्तव में वे सीमित नहीं होते, वे सर्वदा मुक्तस्वभाव ही रहते हैं। (७/८)

१०. आत्मशुद्धि कैसे प्राप्त की जा सकती है? – त्याग द्वारा। एक धनी युवक ने एक बार ईसा से पुछा, “प्रभो, अनन्त जीवन की प्राप्ति के लिए मैं क्या करूँ?” ईसा बोले, “तुझमें एक बड़ी कमी है। जाकर अपनी सारी सम्पत्ति बेच डाल। जो धन प्राप्त हो, उसे गरीबों को दे दे। तुझे स्वर्ग में अक्षय धन-सम्पदा प्राप्त होगी। उसके बाद ‘क्रूस’ धारण कर मेरा अनुगमन कर।” धनी युवक यह सुनकर अत्यन्त उदास हो गया और दुःखी होकर चला गया, क्योंकि उसके पास विशाल संपत्ति थी। हम सब न्यूनाधिक अंशों में उसी युवक के समान हैं। रात-दिन हमारे कानों में यही वाणी ध्वनित होती रहती है। हम अपने आनन्द और विषयोपभोग के क्षणों में सोचते हैं कि हम और सब कुछ भूल गये हैं। पर जब कभी क्षण भर का विराम आता है, तो हमारे कानों में वही ध्वनि गूँजने लगती है, ‘अपना सर्वस्व त्याग कर मेरा अनुसरण कर।’ (७/२२६)

[१] उच्चतर भाष्य (Higher or Historical criticism) – इतिहास एवं साहित्य की दृष्टि से बाइबिल के विभिन्न अंशों की रचना, रचना-काल तथा उनकी प्रामाणिकता के सम्बन्ध में विचार करनेवाला साहित्य। (Textual or Verbal criticism) अर्थात् बाइबिल के वाक्य एवं शब्द-राशि सम्बन्धी चर्चा से इसके पृथक् एवं उच्चतर होने के कारण इसे ‘उच्चतर भाष्य’ कहा गया है।

[२] त्रित्ववादी (Trinitarians) के मत में पिता, पुत्र और पवित्रात्मा के भेद से एक ही ईश्वर तीन हैं। दूसरे सम्प्रदाय इस बात को स्वीकार नहीं करते, वे कहते हैं ईसा मनुष्य मात्र थे।