१. सर्वश्रेष्ठ महापुरुष शान्त, निर्वाक और अज्ञात होते हैं। वे ही वे व्यक्ति हैं, जिन्हें विचार की शक्ति का सच्चा ज्ञान रहता है। उनमें यह दृढ़ विश्वास होता है कि यदि वे किसी पर्वत की गुफा में जाकर उसके द्वार बन्द करके केवल पाँच सत्य विचारों का ही मनन कर इस संसार से चल बसें, तो उनके ये पाँच विचार ही अनन्त काल तक जीवित रहेंगे। वास्तव में ऐसे विचार पर्वतों को भी भेदकर पार हो जायँगे, समुद्रों को लाँघ जायँगे, और सारे संसार में व्याप्त हो जायँगे। वे मानव-हृदय एवं मस्तिष्क में अन्तःप्रविष्ट होकर ऐसे नर-नारी उत्पन्न करेंगे, जो उन्हे मनुष्य के जीवन में कार्यान्वित करेंगे। (३/७९)

२. एक विचार लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ – उसीका चिन्तन करो, उसीका स्वप्न देखो और उसीमें जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वाङ्ग उसीके विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। (१/९०)

३. मन एक ही हैं, समष्टि-मन के अंश मात्र हैं। जिसे एक ढेले का ज्ञान हो गया, उसने दुनिया की सारी मिट्टी जान ली। जो अपने मन को जानता है और स्व-अधीन रख सकता है, वह हर मन का रहस्य जानता है और हर मन पर अधिकार रखता है। (४/१७४)

४. अतीत में कितने ही सर्वज्ञ हो चुके हैं और मेरा विश्वास है कि अब भी बहुत से होंगे तथा आगामी युगों में भी ऐसे असंख्य पुरुष जन्म लेंगे। (३/४)

५. विचार ही हमारी कार्य-प्रवृत्ति का नियामक है। मन को सर्वोच्च विचारों से भर लो, दिन पर दिन यही सब भाव सुनते रहो, मास पर मास इसीका चिन्तन करो। पहले-पहल सफलता न भी मिले; पर कोई हानि नहीं, यह असफलता तो बिल्कुल स्वाभाविक है, यह मानव-जीवन का सौन्दर्य है। (२/१५६)

६. जब तुम्हारा मन संयत हो जायगा, तब तुम पूरे शरीर को वश में रख सकोगे। तब फिर तुम इस यन्त्र के दास नहीं बने रहोगे; यह देहयन्त्र ही तुम्हारा दास होकर रहेगा। तब यह देह-यन्त्र आत्मा को खींचकर नीचे की ओर न ले जाकर उसकी मुक्ति में महान् सहायक हो जायगा। (१/ १८०)

७. मन मानो सरोवर के समान है और हमारा प्रत्येक विचार मानो उस सरोवर की लहर के समान है। जिस प्रकार सरोवर में लहर उठती है, गिरती है, गिरकर अन्तर्हित हो जाती है, उसी प्रकार मन में ये सब विचारतरंगें लगातार उठती और अन्तर्हित होती रहती हैं। किन्तु वे एकदम अन्तर्हित नहीं हो जातीं। वे क्रमशः सूक्ष्मतर होती जाती हैं, पर वर्तमान रहती ही हैं। प्रयोजन होने पर फिर उठती हैं। (२/२५)

८. मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में जा सकता है। जिस प्रकार अज्ञान-भूमि से जो कार्य होता है, वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है, वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी – ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है। उसमें भी किसी प्रकार का अहं-भाव नहीं रहता। यह अहं-भाव केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहं-ज्ञान नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है। जब मन इस रेखा के ऊपर अर्थात् ज्ञान-भूमि के अतीत प्रदेश में गमन करता है, तब उसे समाधि, अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि कहते हैं। (१/९२)

९. मन विकल्परहित या वृत्तिहीन होता है तभी मन का लोप होता है और तभी आत्मा प्रत्यक्ष होती है। इस अवस्था का वर्णन भाष्यकार श्रीशंकराचार्य ने ‘अपरोक्षानुभूति’ कहकर किया है। (६/३५)

१०. हमारा शरीर मानो एक लोहपिण्ड है और हमारा प्रत्येक विचार मानो धीरे धीरे उसके ऊपर हथौड़ी की चोट मारना है – उसके द्वारा हम अपने शरीर का गढ़न इच्छानुसार करते हैं। (७/२८)

११. हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिन्तन का ही फल है। इसलिए तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो।(७/२२)

१२. पर्वत की कन्दरा में भी बैठकर यदि तुम कोई पाप-चिन्तन करो, किसीके प्रति घृणा का भाव पोषण करो, तो वह भी संचित रहेगा, और कालान्तर में फिर से वह तुम्हारे पास कुछ दुःख के रूप में आकर तुम पर प्रबल आघात करेगा। यदि तुम अपने हृदय से ईर्ष्या और घृणा का भाव चारों ओर बाहर भेजो, तो वह चक्रवृद्धि व्याज सहित तुम पर आकर गिरेगा। दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक न सकेगी। यदि तुमने एक बार उस शक्ति को बाहर भेज दिया, तो फिर निश्चित जानो, तुम्हें उसका प्रतिघात सहन करना ही पड़ेगा। यह स्मरण रहने पर तुम कुकर्मों से बचे रह सकोगे। (१/१७७-७८)

१३. हम जगत् के सम्पूर्ण शुभ विचारों के उत्तराधिकारीस्वरूप हैं – यदि हम अपने को उनके प्रति मुक्त कर दें। (७/२८)

१४. ‘विचार और कार्य की स्वतंत्रता ही जीवन, उन्नति और कुशलक्षेम का एकमेव साधन है।’ जहाँ यह स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ व्यक्ति, जाति, राष्ट्र की अवनति निश्चय होगी।

जात-पाँत रहे या न रहे, सम्प्रदाय रहे या न रहे, परन्तु जो मनुष्य या वर्ग, जाति, राष्ट्र या संस्था किसी व्यक्ति के स्वतंत्र विचार या कर्म पर प्रतिबन्ध लगाती है – भले ही उससे दूसरों को क्षति न पहुँचे, तब भी – वह आसुरी है और उसका नाश अवश्य होगा। (२/३२१)