१. वेदान्त प्रतिपाद्य ब्रह्म इस शर्त को पूर्ण करता है, क्योंकि जिस अंतिम सामान्यीकरण में हम पहुँच सकते हैं, वह ब्रह्म ही हो सकता है। वह गुणातीत है, किन्तु, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप – निरपेक्ष है। मानवीय चेतना की पहुँच जिस अन्तिम सामान्यीकरण तक हो सकती है, वह यही ‘सत्’ है। ‘चित्’ सामान्य ज्ञान नहीं, किन्तु उस तत्त्व का मूल है, जो अपने को विकास-क्रम के अनुसार प्राणियों एवं मानवों में ज्ञान के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। उस ज्ञान के सार को यदि चेतना से भी परे एक अन्तिम तथ्य कहा जाय, तो भी अनुचित न होगा। ज्ञान का असली आशय यही है, एवं सृष्टि में वस्तुओं के मूलभूत एकत्व के रूप में हम इसीको पाते हैं। (२/ २८२-८३)

२. ब्रह्म के या वेदान्त के ईश्वर के बाहर कुछ नहीं है – बिल्कुल कुछ नहीं। यह सब ‘वही’ हैः विश्व में उसकी ही सत्ता है। ‘वह’ स्वयं विश्व ही है। ‘तू ही पुरुष है, तू स्त्री है, यौवन-मद में विचरण करते हुए तू ही युवा पुरुष है, पग पग पर लड़खड़ाता हुआ वह वृद्ध पुरुष भी तू ही है। (२/२८४)

३. सच्चिदानन्द शब्द का अर्थ है – सत् यानी अस्तित्व, चित् अर्थात् चैतन्य या ज्ञान और आनन्द अर्थात् प्रेम। भगवान् के ‘सत्’ भाव के विषय में भक्त और ज्ञानी में कोई विवाद नहीं। परन्तु ज्ञानमार्गी ब्रह्म की चित् या चैतन्य सत्ता पर ही सदा अधिक जोर देते हैं और भक्त सदा ‘आनन्द’ सत्ता पर दृष्टि रखते हैं। परन्तु ‘चित्’ स्वरूप की अनुभूति होने के साथ ही आनंदस्वरूप की भी उपलब्धि हो जाती है, क्योंकि जो चित् है, वही आनन्द है। (६/१३६)

४. हम कभी कभी किसी पदार्थ का संकेत उसके आस-पास के कुछ व्यापारों के वर्णन द्वारा करते हैं। हम जब ब्रह्म को सच्चिदानन्द नाम से अभिहित करते हैं, तब हम वास्तव में उसी अनिर्वचनीय सर्वातीत सत्तारूपी समुद्र के तट मात्र का कुछ संकेत देते हैं। हम इसे ‘अस्ति’ स्वरूप नहीं कह सकते, क्योंकि अस्ति कहने से ही उसके विपरीत ‘नास्ति’ का ज्ञान भी होता है, अतएव वह भी सापेक्षिक है। कोई भी धारणा या कल्पना व्यर्थ है। केवल ‘नेति’ ‘नेति’ – (यह नहीं, वह नहीं) ही कहा जा सकता है, क्योंकि विचार मात्र करना भी सीमित कर देना है और अतः खो देना है। (७/८८)

५. ब्रह्म एक होकर भी व्यावहारिक रूप में अनेक रूपों में सामने विद्यमान है। नाम तथा रूप व्यवहार के मूल में मौजूद हैं। जिस प्रकार घड़े का नाम-रूप छोड़ देने से क्या देखता है – केवल मिट्टी, जो उसकी वास्तविक सत्ता है। इसी प्रकार भ्रम में घट, पट इत्यादि का भी तू विचार करता है तथा उन्हें देखता है। ज्ञान-प्रतिबन्धक यह जो अज्ञान है, जिसकी वास्तविक कोई सत्ता नहीं है, उसीको लेकर व्यवहार चल रहा है। स्त्री-पुत्र, देह-मन जो कुछ है, सभी नाम-रूप की सहायता से अज्ञान की सृष्टि में देखने में आते हैं। ज्योंही अज्ञान हट जायगा, त्योंही ब्रह्म सत्ता की अनुभूति हो जायगी। (६/१२४)

६. तू भी वही पूर्ण ब्रह्म है। इसी मुहूर्त में ठीक ठीक अपने को उसी रूप में सोचने पर उस बात की अनुभूति हो सकती है। केवल अनुभूति की ही कमी है। तू जो नौकरी करके स्त्री-पुत्रों के लिए इतना परिश्रम कर रहा है, उसका भी उद्देश्य उस सच्चिदानंद की प्राप्ति ही है। इस मोह के दाँवपेंच में पड़कर, मार खा खाकर धीरे धीरे अपने स्वरूप पर दृष्टि पड़ेगी। वासना है, इसलिए मार खा रहा है और आगे भी खायेगा। बस, इसी प्रकार मार खा खाकर अपनी ओर दृष्टि पड़ेगी। प्रत्येक व्यक्ति की किसी न किसी समय अवश्य ही पड़ेगी। अन्तर इतना ही है कि किसी की इसी जन्म में और किसी की लाखों जन्मों के बाद पड़ती है। (६/१३३)

७. यह सम्पूर्ण विश्व कभी ब्रह्म में ही था। ब्रह्म से यह मानो निकल आया है और तब से सतत भ्रमण करता हुआ यह पुनः अपने उद्गम स्थान पर वापस जाना चाहता है। यह सारा क्रम कुछ ऐसा ही है, जैसे डाइनेमो से बिजली का निकलना और विभिन्न धाराओं से चक्कर काटकर पुनः उसीमें चला जाना। आत्मा ब्रह्म से प्रक्षेपित होकर विभिन्न रूपों – वनस्पति तथा पशुलोकों – से होती हुई मनुष्य के रूप में आविर्भूत होती है। मनुष्य ब्रह्म के सबसे अधिक समीप है। वस्तुतः जीवन का सारा संग्राम इसीलिए है कि पुनः आत्मा ब्रह्म में मिल जाय। (२/२२०)

८. जो इन्द्रियों से अतीत है, जो अरूप है, जो रस के अतीत है, जो अविकार्य, अचिन्त्य, अनन्त और अनश्वर है, उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु के मुख से बच जाता है। (३/१६४)