२. कौन जानता है, इन दोनों आदर्शों में कौन सत्य और उच्च है – पाश्चात्यों की यह बल-प्रतीयमान शक्ति या प्राच्यों की कष्ट-सहिष्णुता, क्षमा और तितिक्षा?
पश्चिम कहता है, ‘हम अशुभ पर विजय प्राप्त करके ही उसका नाश करते हैं।’ भारत कहता है, ‘हम अशुभ का नाश करते हैं, सहन करके, यहाँ तक कि वह हमारे लिए आनन्द की वस्तु बन जाता है।’ शायद दोनों ही आदर्श महान् हैं; पर कौन जानता है, अन्ततोगत्वा कौन सा आदर्श जीवित रह सकेगा – किस आदर्श की जय होगी? कौन जानता है, किस आदर्श से मानव-जाति का अधिकतर यथार्थ कल्याण सम्पादित हो सकेगा? किसे ज्ञात है, कौन सा आदर्श मनुष्य की पाशविकता को निर्वरीय कर उस पर विजय पा सकेगा – सहिष्णुता अथवा क्रियाशीलता?
और इसलिए हमें एक दूसरे के आदर्शों को नष्ट करने की चेष्टा छोड़ देनी चाहिए। हम दोनों का लक्ष्य एक ही है – अशुभ का क्षय और नाश। तुम अपनी प्रणाली के अनुसार कार्य करो और हमें अपने अनुसार करने दो। हम आदर्श नष्ट न करें। मैं पश्चिम से यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम हमारा मार्ग अपना लो। कभी नहीं। लक्ष्य एक है, किन्तु साधन-मार्ग कभी एक ही नहीं हो सकता। और इसलिए, भारत के आदर्शों की बात सुनकर मुझे आशा है; तुम भारत को सम्बोधन कर कहो, ‘हम जानते हैं – हम दोनों का लक्ष्य और आदर्श एक ही है। तुम अपने आदर्श का अनुसरण करो। तुम अपने साधन-पथ पर प्रस्थान करो – ईश्वर तुम्हारा कल्याण करें।’ इस जीवन में पूर्व और पश्चिम दोनों को मेरा यही सन्देश है कि विभिन्न आदर्शों पर विवाद व्यर्थ है, लक्ष्य दोनों का एक ही है, वे एक दूसरे से कितने ही भिन्न क्यों न प्रतीत होते हों। और इसलिए जीवन के इन ऊँचेनीचे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों में, जीवन की इस चक्करदार भूलभूलैया के मार्ग पर चलते हुए, परस्पर मंगल-कामना करते हुए, परस्पर का अभिवादन कर कहें ‘ईश्वर तुम्हारी लक्ष्य-सिद्धि में सहायक हो।’ (७/१४५-४६)
३. नानात्व के बावजूद एकत्व को स्वीकार करना, प्रत्येक वस्तु के हमारे लिए भयप्रद प्रतीत होने के बावजूद अन्तःकरण में ईश्वर को स्वीकार करना, सभी प्रत्यक्ष दुर्बलताओं के बावजूद असीम बल को प्रत्येक का गुण स्वीकार करना और ऊपरी सतह के सभी विरोधाभासों के बावजूद आत्मा की शाश्वत, अनन्त और तात्त्विक पवित्रता को स्वीकार करना नीतिशास्त्र का कार्य रहा है और भविष्य में भी रहेगा, न कि विविधता का विनाश करना और बाह्य जगत् में एकरूपता की स्थापना करना – जो असम्भव है, क्योंकि उससे मृत्यु तथा विनाश हो जायगा। इसे हमें स्वीकार करना पड़ेगा। (९/ ११२)
४. जब हम नीतिशास्त्र पर विचार करते हैं, तो हमें बड़ा अंतर मिलता है। शायद यही एक विज्ञान है, जो इस संघर्ष का साहसपूर्ण अतिक्रमण करता है। क्योंकि नीतिशास्त्र एकता है; इसका आधार है प्रेम। वह इस विविधता पर दृष्टिपात नहीं करता। नीतिशास्त्र का एकमात्र उद्देश्य है, यह एकत्व और यह एकरूपता। आज तक मानव जाति नैतिकता के जिन उच्चतम विधानों की खोज कर सकी है, वे विविधता नहीं स्वीकार करते, उसकी खोज-बीन के निमित्त रुकने के लिए उनके पास समय नहीं है, उनका एक उद्देश्य बस वही एकरूपता लाना है। भारतीय मस्तिष्क – मेरा अभिप्राय वेदान्ती मस्तिष्क से है – अधिक विश्लेषक है और उसने समस्त विश्लेषण के परिणामस्वरूप इस एकत्व का पता लगाया और उसने एकत्व के इस एक भाव पर प्रत्येक वस्तु को आधारित करना चाहा। (९/१०९)
५. अतएव, कर्मयोग, निःस्वार्थपरता और सत्कर्म द्वारा मुक्ति-लाभ करने का एक धर्म और नीतिशास्त्र है। कर्मयोगी को किसी भी प्रकार के सिद्धान्त में विश्वास करने की आवश्यकता नहीं। वह ईश्वर में भी चाहे विश्वास न करे, आत्मा के सम्बन्ध में न जानना चाहे, या किसी प्रकार का दार्शनिक विचार भी न करे, इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। उसके सम्मुख उसका अपना लक्ष्य रहता है – निःस्वार्थता की उपलब्धि और उसको अपने प्रयत्न द्वारा ही उसे प्राप्त करना होता है। उसके जीवन के प्रत्येक क्षण में यह उपलब्धि होनी चाहिए, क्योंकि उसे किसी मत या सिद्धान्त की सहायता लिए बिना ही अपनी इस समस्या का समाधान केवल कर्म द्वारा करना होता है, जब कि ज्ञानी उसी समस्या का समाधान अपने विचार और अन्तःप्रेरणा द्वारा तथा भक्त अपनी भक्ति द्वारा करता है। (३/८३-८४)
६. आजकल स्वर्णयुग की इसी भावना ने साम्य का – स्वाधीनता, साम्य व मैत्री का रूप धारण कर लिया है। यह भी एक धर्मान्धता है। यथार्थ साम्य न तो कभी संसार में हुआ है, और न कभी होने की आशा है। यहाँ हम सब समान हो ही कैसे सकते हैं? इस प्रकार के असम्भव साम्य का फल तो मृत्यु ही होगा! (३/८६)
७. परन्तु फिर भी स्वर्णयुग को लाने की कल्पना एक प्रबल प्रेरक शक्ति है। जिस प्रकार सृष्टि के लिए विषमता आवश्यक है, उसी प्रकार उसे सीमित करने की चेष्टा भी नितान्त आवश्यक है। यदि मुक्ति एवं ईश्वर के पास लौट जाने की चेष्टा न हो, तो सृष्टि भी नहीं रह सकती। कर्म करने के पीछे मनुष्य का जो हेतु रहता है, वह इन दो शक्तियों के अन्तर से ही निश्चित होता है। कर्म के प्रति ये प्रेरणाएँ सदा विद्यमान रहेंगी – कुछ बन्धन की ओर ले जायँगी और कुछ मुक्ति की ओर। (३/८७)
८. यह स्वयंसिद्ध तथ्य है कि अन्य लोगों की अपेक्षा कुछ लोगों में शारीरिक बल अधिक होगा और इस प्रकार स्वाभाविक है कि वे निर्बल को दबा देंगे या परास्त कर देंगे; परन्तु यह कानून नहीं कहता कि इस बल के कारण जीवन के सभी प्राप्य सुखों को वे स्वयं अपने में समेट लें, और संघर्ष इसीके विरुद्ध रहा है। यह स्वाभाविक है कि कुछ लोग स्वभावतः सक्षम होने के कारण दूसरों की अपेक्षा अधिक धन संग्रह कर लें; किन्तु धन प्राप्त करने के इस सामर्थ्य के कारण वे उन लोगों पर अत्याचार और अन्धाधुन्ध व्यवहार करें, जो उतना अधिक धन संग्रह करने में समर्थ न हों, तो यह कानून का अंग नहीं है, और संघर्ष इसके विरुद्ध हुआ है। अन्य के ऊपर सुविधा के उपभोग को विशेषाधिकार कहते हैं और इसका विनाश करना युग युग से नैतिकता का उद्देश्य रहा है। यह कार्य ऐसा है, जिसकी प्रवृत्ति साम्य और एकत्व की ओर है तथा जिससे विविधता का विनाश नहीं होता। (९/१११)
९. परिवर्तन सदा ‘अपने’ ही अन्दर होता है। समस्त क्रमविकास में तुम सर्वत्र देखते हो कि प्राणी में परिवर्तन होने से ही प्रकृति पर विजय प्राप्त होती है। इस तत्त्व का प्रयोग धर्म और नीति में करो, तो देखोगे, यहाँ भी ‘अशुभ पर जय’ ‘अपने’ भीतर परिवर्तन के द्वारा ही होती है। सब कुछ ‘अपने’ ऊपर निर्भर रहता है। इस ‘अपने’ पर जोर देना ही अद्वैतवाद की वास्तविक दृढ़ भूमि है। ‘अशुभ, दुःख’ की बात कहना ही भूल है, क्योंकि बहिर्जगत् में इनका कोई अस्तित्व नहीं है। इन सब घटनाओं में स्थिर भाव से रहने का यदि मुझे अभ्यास हो जाय, तो फिर क्रोधोत्पादक सैकड़ों कारण सामने आने पर भी मुझमें क्रोध का उद्रेक न होगा। इसी प्रकार, लोग मुझसे चाहे जितनी घृणा करें, पर यदि मैं उससे प्रभावित न होऊँ, तो मुझमें उनके प्रति घृणा-भाव उत्पन्न ही न होगा। (२/९२)
१०. शुभ या अशुभ मात्रा का तारतम्य है – आत्मा की अल्प या अधिक अभिव्यक्ति को लेकर। हमारे निज के जीवन का दृष्टान्त ही लो। बचपन में कितनी वस्तुओं को हम अच्छा समझते हैं, जो वास्तव में बुरी हैं; और कितनी वस्तुओं को हम बुरे रूप में देखते हैं, जो वास्तव में अच्छी हैं; हमारी धारणा का कैसा परिवर्तन होता है? एक भाव किस प्रकार उच्च से उच्चतर होता रहता है। हम एक समय जिसे बहुत अच्छा समझते थे, अब हम उसे उतना अच्छा नहीं मानते। इस प्रकार शुभ-अशुभ अंधविश्वास मात्र हैं और उनका अस्तित्व नहीं है। उसकी सर्वोत्तम अभिव्यक्ति तब होती है, जब सारा आच्छादन नष्ट हो जाता है। अंतर केवल मात्रा के तारतम्य में है। सब उस आत्मा का ही प्रकाश है। वह सबमें ही प्रकाशित हो रही है, केवल उसका प्रकाश स्थूल होने पर हम उसे अशुभ कहते हैं और सूक्ष्म होने पर शुभ कहते हैं। (७/१२९)
११. नीतिशास्त्र सदा कहता है – ‘मैं नहीं, तू।’ इसका उद्देश्य है – ‘स्व नहीं, निःस्वः’। इसका कहना है कि असीम सामर्थ्य अथवा असीम आनन्द को प्राप्त करने के क्रम में मनुष्य जिस निरर्थक व्यक्तित्व की धारणा से चिपटा रहता है, उसे छोड़ना पड़ेगा। तुमको दूसरों को आगे करना पड़ेगा और स्वयं को पीछे। हमारी इन्द्रियाँ कहती है, ‘अपने को आगे रखो’, पर नीतिशास्त्र कहता है – ‘अपने को सबसे अन्त में रखो।’ इस तरह नीतिशास्त्र का सम्पूर्ण विधान त्याग पर ही आधारित है। उसकी पहली माँग है कि भौतिक स्तर पर अपने व्यक्तित्व का हनन करो, निर्माण नहीं। वह जो असीम है, उसकी अभिव्यक्ति इस भौतिक स्तर पर नहीं हो सकती, ऐसा असम्भव है, अकल्पनीय है। (२/१९५-९६)
१२. सभी नीतिशास्त्रों का, अनपवाद रूप से, एक बड़ा दोष यह है कि उन्होंने उन साधनों का कभी उपदेश नहीं दिया, जिनके द्वारा मनुष्य बुरा करने से अपने को रोक सके। सभी नीतिशास्त्र कहते हैं कि ‘चोरी मत करो।’ ठीक है; लेकिन मनुष्य चोरी करता ही क्यों है? कारण यह है कि चोरी, डाका, दुर्व्यवहार आदि कुकर्म यांत्रिक सहज क्रियाएँ बन बैठे हैं। डाका डालनेवाले, चोर, झूठे तथा अन्यायी स्त्री-पुरुष – ये ऐसे इसलिए हो गये हैं कि अन्यथा होना उनके हाथ नहीं। सचमुच यह मनोविज्ञान के लिए एक बड़ी विकट समस्या है। मनुष्य की ओर हमें बड़ी उदारता की दृष्टि से देखना चाहिए। अच्छा बनना इतनी सरल बात नहीं है। जब तक तुम मुक्त नहीं होते, तब तक एक यंत्र के सिवा तुम और क्या हो? क्या तुम्हें इस बात पर अभिमान होना चाहिए कि तुम अच्छे मनुष्य हो? बिल्कुल नहीं। तुम इसलिए अच्छे हो कि तुम अन्यथा नहीं हो सकते। दूसरा मनुष्य इसलिए बुरा है कि अन्यथा होना उसके बस की बात नहीं। अगर तुम उसकी जगह होते, तो कौन जानता है कि तुम क्या होते? एक वेश्या या जेलबंद चोर मानो ईसा मसीह है, जो इसलिए सूली पर चढ़ाया गया है कि तुम अच्छे बनो। प्रकृति में इसी तरह साम्यावस्था रहती है। सब चोर और खूनी, सब अन्यायी और पतित, सब बदमाश और राक्षस मेरे लिए ईसा मसीह हैं! देवरूपी ईसा तथा दानवरूपी ईसा, दोनो ही मेरे लिए आराध्य हैं यही मेरा धर्म है, इससे अन्यथा मेरे बस की बात नहीं। अच्छे और साधु पुरुषों को मेरा प्रणाम! बदमाश और शैतानों को भी मेरा प्रणाम! वे सभी मेरे गुरु हैं, मेरे धर्मोपदेशक आचार्य हैं, मेरे त्राता हैं। मैं चाहे किसी एक को शाप दूँ, परन्तु सम्भव है, फिर उसीके दोषों से मेरा लाभ भी हो; दूसरे को मैं आशीर्वाद दूँ और उसके शुभ कर्मों से मेरा हित हो। यह सूर्य-प्रकाश के समान सत्य है। दुराचारी स्त्री को मुझे इसलिए दुत्कारना पड़ता है कि समाज वैसा चाहता है। आह, वह! वह मेरी तारिणी, जिसकी वेश्या-वृत्ति के ही कारण दूसरी स्त्रियों का सतीत्व सुरक्षित रहा, इसका विचार तो करो! भाइयो और बहनो, इस प्रश्न को जरा अपने मन में सोचो। यह सत्य है – बिल्कुल सत्य है। मैं जितनी ही अधिक दुनिया देखता हूँ, जितना ही अधिक स्त्रीपुरुषों के सम्पर्क में आता हूँ, उतनी ही मेरी यह धारणा दृढ़तर होती जाती है। मैं किसे दोष दूँ? मैं किसकी तारीफ़ करूँ? हमें वस्तुस्थिति का सभी पक्षों से विचार करना चाहिए। (३/१२०)