२. ध्यान उच्चतम अवस्था है। . . . जब तक (चित्त में) संशय रहता है, ऊँची अवस्था नहीं होती। समाधि उच्चावस्था है। वह द्रष्टा और साक्षी के रूप में वस्तुओं को देखता है, परन्तु उनके साथ तदाकार नहीं होता। जब तक मुझे दुःख होता है, तब तक शरीर में मेरी तादात्म्य वृत्ति है। जब तक मुझे मौज या खुशी का अनुभव होता है, तब तक शरीर में मेरी तादात्म्य वृत्ति है। परन्तु जो उच्चावस्था है, उसमें सुख-दुख, दोनों में एक सा सुख अथवा आनंद प्रतीत होगा। . . . प्रत्येक प्रकार का ध्यान प्रत्यक्ष समाधि है। चित्त के पूर्ण एकाग्र हो जाने पर जीवात्मा स्थूल शरीर के बंधन से वस्तुतः मुक्त हो जाती है और उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। (४/ १२९-३०)
३. किसी विषय पर मन को एकाग्र करने का ही नाम ध्यान है। किसी एक विषय पर भी मन की एकाग्रता हो जाने से वह एकाग्रता जिस विषय पर चाहो उस पर लगा सकते हो। (६/४३)
४. पहले किसी एक विषय का आश्रय कर ध्यान का अभ्यास करना पड़ता है। किसी समय मैं एक छोटे से काले बिंदु पर मन को एकाग्र किया करता था। परन्तु कुछ दिन के अभ्यास के बाद वह बिंदु मुझे दीखना बन्द हो गया था। वह मेरे सामने है या नहीं यह भी ध्यान नहीं रहता था। निवात समुद्र के समान मन का सम्पूर्ण निरोध हो जाता था। ऐसी अवस्था में मुझे अतीन्द्रिय सत्य की परछाई कुछ कुछ दिखायी देती थी। इसलिए मेरा विचार है कि किसी सामान्य बाहरी विषय का भी आश्रय लेकर ध्यान करने का अभ्यास करने से मन की एकाग्रता होती है। जिसमें जिसका मन लगता है, उसीके ध्यान का अभ्यास करने से मन शीघ्र एकाग्र हो जाता है। इसीलिए हमारे देश में इतने देव-देवी मूर्तियों के पूजने की व्यवस्था है। देव-देवी पूजा से ही शिल्प की उन्नति हुई है। परन्तु इस बात को अभी छोड़ दो। अब बात यह है कि ध्यान का बाहरी अवलम्बन सब का एक नहीं हो सकता। जो जिस विषय के आश्रय से ध्यान-सिद्ध हो गया है, वह उस अवलम्बन का ही वर्णन और प्रचार कर गया है। कालान्तर में वे मन को स्थिर करने के लिए हैं, इस बात के भूलने पर लोगों ने इस बाहरी अवलम्बन को ही श्रेष्ठ समझ लिया। उपाय में ही लोग लगे रह गये; उद्देश्य पर लक्ष्य कम हो गया। मन को वृत्तिहीन करना ही उद्देश्य है; किन्तु यह किसी विषय में तन्मय हुए बिना असम्भव है। (६/४३-४४)
५. “भितर नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मारूपी सिंह विद्यमान है; ध्यान-धारणा करके उसका दर्शन पाते ही माया की दुनिया उड़ जाती है। (६/२२१)
६. इसीका नाम यथार्थ पुरुषकार है। तेल की धार की तरह मन को एक ओर लगाये रखना चाहिए। जीव का मन अनेकानेक विषयों से विक्षिप्त हो रहा है। ध्यान के समय भी पहले-पहल मन विक्षिप्त होता है। मन में जो चाहे भाव उठें, उन्हें उस समय स्थिर हो बैठकर देखना चाहिए। देखते देखते मन स्थिर हो जाता है और फिर मन में चिन्तन की तरंगें नहीं रहतीं। वह तरंग-समूह ही है, मन की संकल्प-वृत्ति। इससे पूर्व जिन विषयों का तीव्र भाव से चिन्तन किया है, उनका एक मानसिक प्रवाह रहता है। इसीलिए वे विषय-ध्यान के समय मन में उठते हैं। साधक का मन धीरे धीरे स्थिरता की ओर जा रहा है, उनका उठना या ध्यान के समय स्मरण होना ही उसका प्रमाण है कि मन कभी कभी किसी भाव को लेकर एकवृत्तिस्थ हो जाता है – उसीका नाम है सविकल्प ध्यान। (६/२२१-२२)
७. आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा सहायक ‘ध्यान’ है। ध्यान के द्वारा हम अपनी भौतिक भावनाओं से अपने आपको स्वतंत्र कर लेते हैं और अपने ईश्वरीय स्वरूप का अनुभव करने लगते हैं। ध्यान करते समय हमें कोई बाहरी साधनों पर अवलम्बित नहीं रहना पड़ता। (३/१२३)
८. ध्यान ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। मन की यह ध्यानावस्था आध्यात्मिक जीवन की सर्वाधिक समीपता है। समस्त जड़ पदार्थों से मुक्त होकर आत्मा का अपने आप के बारे में चिन्तन – आत्मा का यह अद्भुत संस्पर्श – यही हमारे दैनिक जीवन में एकमात्र ऐसा क्षण है, जब हम किंचित् भी पार्थिव नहीं रह जाते। (३/९७)
९. तू सर्वव्यापी आत्मा है, इसी बात का मनन और ध्यान किया कर। मैं देह नहीं – मन नहीं – बुद्धि नहीं – स्थूल नहीं – सूक्ष्म नहीं – इस प्रकार ‘नेति’ ‘नेति’ करके प्रत्यक् चैतन्य रूपी अपने स्वरूप में मन को डुबो दे। इस प्रकार मन को बार बार डुबो डुबो कर मार डाल। तभी ज्ञानस्वरूप का बोध या स्व स्वरूप में स्थिति होगी। उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायँगे – ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान एक हो जायँगे। सभी अध्यासों की निवृत्ति हो जायगी। इसीको शास्त्र में ‘त्रिपुटि भेद’ कहा है। इस स्थिति में जानने, न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता है, तब उसे फिर जानेगा कैसे? आत्मा ही ज्ञान – आत्मा ही चैतन्य – आत्मा ही सच्चिदानन्द है। (६/१६६)
१०. इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं, प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। सबसे निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी, कभी न कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे; और जब किसीको यह अवस्था प्राप्त हो जायगी, तभी और सिर्फ़ तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है। इससे पहले हम उसकी ओर जाने के लिए केवल संघर्ष करते हैं। जो धर्म नहीं मानता, उसमें और हममें अभी कोई विशेष अन्तर नहीं, क्योंकि हमें आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ। इस आत्म-साक्षात्कार तक हमें पहुँचाने के बिना एकाग्रता का और क्या शुभ उद्देश्य है? इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गम्भीर रूप से विचार किया गया है, उसे विशेष रूप से नियमित, श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में सम्बद्ध किया गया है। यदि साधना ठीक ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाय, तो वह अवश्य हमें अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचा देगी। और तब सारे दुःखकष्टों का अंत हो जायगा, कर्म का बीज दग्ध हो जायगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जायगी। (१/१००)