२. आकाश में नाना वर्ण के नाना मेघ आ रहे हैं। वे मुहूर्त भर वहाँ ठहरकर चले जा रहे हैं। किन्तु वह एक नील आकाश बराबर समान भाव से विद्यमान है। आकाश का कदापि परिवर्तन नहीं होता, मेघ का परिवर्तन हो रहा है। इसी प्रकार तुम सब भी पहले से पूर्ण हो, अनन्त काल से पूर्ण हो। कुछ भी तुम्हारी प्रकृति को कदापि परिवर्तित कर नहीं सकता, कभी करेगा भी नहीं। यह जो सब धारणा है कि हम अपूर्ण हैं, हम नर हैं, हम नारी हैं, हम पापी हैं, हम मन हैं, हमने विचार किया है, और करेंगे – यह सब भ्रम मात्र है। तुम कदापि विचार नहीं करते, तुम्हारी किसी काल में देह नहीं थी, तुम किसी काल में अपूर्ण नहीं थे। (८/७०)
३. तुम्हीं सबके मध्य विद्यमान हो, तुम्ही सर्वस्वरूप हो। किसे त्याग करोगे, अथवा किसको ही ग्रहण करोगे? – तुम्हीं समग्र हो! जब इस ज्ञान का उदय होता है, तब मायामोह उसी क्षण उड़ जाता है। (८/७०)
४. देश-काल-निमित्त – ये सभी भ्रम हैं। तुम सोचते हो कि मैं बद्ध हूँ, मुक्त होऊँगा – यह तुम्हारा रोग है। तुम अपरिणामी हो। बातें करना छोड़ दो, चुप होकर बैठे रहो – सभी वस्तुएँ तुम्हारे सामने से उड़ जायँ – वे सब स्वप्न मात्र हैं। पार्थक्य या भेद नामक कोई वस्तु नहीं है, वह सब तो कुसंस्कार मात्र है। अतएव मौन भाव का अवलम्बन करो और अपना स्वरूप पहचानो। (७/८७-८८)
५. किसीसे भय मत करना। तुम सार-सत्तास्वरूप हो। शान्ति में रहो – अपने को चंचल मत करो। तुम कभी बद्ध नहीं हुए हो। पुण्य या पाप तुम्हें स्पर्श नहीं करता। इन सभी भ्रमों को दूर कर दो और शान्ति में रहो। किसकी उपासना करोगे? उपासना भी कौन करेगा? सभी तो आत्मा हैं। कोई बात कहना, या किसी तरह की चिन्ता करना कुसंस्कार है। बारंबार बोलो, ‘मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ।’ शेष सब उड़ जाने दो। (७/८८)
६. अज्ञान ही इस समस्त बन्धन का कारण है। हम अज्ञान के ही कारण बँधे हुए हैं। ज्ञान से अज्ञान दूर होगा, यही ज्ञान हमें उस पार ले जायगा। तो इस ज्ञान-प्राप्ति का क्या उपाय है? – प्रेम और भक्ति से, ईश्वराराधन द्वारा और सर्वभूतों को परमात्मा का मन्दिर समझकर प्रेम करने से ज्ञान होता है। इस प्रकार अनुराग की प्रबलता से ज्ञान का उदय होगा और अज्ञान दूर होगा, सब बन्धन टूट जायँगे और आत्मा को मुक्ति मिलेगी। (५/२७)
७. मानव-जीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण असामंजस्यपूर्ण है। इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें युक्ति-तर्क के अतीत जाना पड़ेगा। पर वह धीरे धीरे करना होगा, नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा, और सारे अंधविश्वास को भी हमें छोड़ देना होगा। अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं, इस अतिचेतन अवस्था के अध्ययन के लिए ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा। युक्ति-तर्क को ही अपनी नींव बनाना होगा। युक्ति-तर्क हमें जितनी दूर ले जा सकता है, हम उतनी दूर जायँगे और जब युक्ति-तर्क नहीं चलेगा, तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगा। (१/९७)
८. वर्तमान काल में सबसे बड़ा प्रश्न है : अगर ज्ञात और ज्ञेय जगत् का आदि और अन्त अज्ञात तथा अनंत अज्ञेय द्वारा सीमाबद्ध है, तो उस अज्ञात के लिए हम प्रयास ही क्यों करें? क्यों न हम ज्ञात जगत् में ही सन्तुष्ट रहें? क्यों न हम खाने, पीने और संसार की किंचित् भलाई करने में ही सन्तुष्ट रहें? ये प्रश्न अक्सर सुनने को मिलते हैं। विद्वान् प्राध्यापक से लेकर तुतलाते बच्चे तक हमसे कहते हैं, “संसार की भलाई करो; यही सारा धर्म है; इसके परे क्या है, इससे संबंधित प्रश्नों से व्यर्थ अपने को परेशान मत करो।” यह बात इतनी चल पड़ी है कि इसने एक स्थिर सिद्धांत का रूप ले लिया है।
९. किन्तु सौभाग्यवश हम अनन्त के बारे में जिज्ञासा किये बिना नहीं रह सकते। यह जो वर्तमान है, व्यक्त है, वह अव्यक्त का एक अंश मात्र है। इन्द्रियों की चेतना के स्तर पर जो अनन्त आध्यात्मिक जगत् प्रक्षेपित है, यह इन्द्रियजगत् उसका एक नन्हा सा अंश है। ऐसी स्थिति में उस अनन्त विस्तार को समझे बिना यह नन्हा सा प्रक्षेपित भाग कैसे समझा जा सकता है? (२/२६४)
१०. कान्ट (Kant) ने निःसंदिग्ध रूप से प्रमाणित किया है कि हम युक्ति-तर्करूपी दुर्भेद्य दीवार का अतिक्रमण कर उसके उस पार नहीं जा सकते। किन्तु भारत में तो समस्त विचारधाराओं की पहली बात है – युक्ति के उस पार चले जाना। योगीगण अत्यन्त साहस के साथ इस राज्य की खोज में प्रवृत्त होते हैं, और अन्त में ऐसी एक अवस्था को प्राप्त करने में सफल होते हैं, जो समस्त युक्ति-तर्क के परे है और जिसमें ही केवल हमारी वर्तमान परिदृश्यमान अवस्था का स्पष्टीकरण मिलता है। यही लाभ है उसके अध्ययन से, जो हमें जगत् के अतीत ले जाता है। त्वं हि नः पिता, योऽस्माकमविद्यायाः परं पार तारयसि। ‘तुम हमारे पिता हो, तुम हमें अज्ञान के उस पार ले जाओगे।’(१) यही धर्मविज्ञान है, और कुछ भी नहीं। (१/११४)
११. धर्म यह दावा क्यों करता है कि वह तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहता; यह कोई नहीं बतला सकता। तर्क के मानदण्ड के बिना किसी भी प्रकार का यथार्थ निर्णय – धर्म के संबंध में भी – नहीं दिया जा सकता। धर्म कुछ बीभत्स करने की आज्ञा दे सकता है। जैसे, इस्लाम मुसलमानों को विधर्मियों की हत्या करने की आज्ञा देता है। क़ुरान में स्पष्ट लिखा है, ‘यदि विधर्मी इस्लाम ग्रहण न करें, तो उन्हें मार डालो। उन्हें तलवार और आग के घाट उतार दो।’ अब यदि हम किसी मुसलमान से कहें कि यह गलत है, तो वह स्वभावतः पूछेगा, “तुम कैसे जानते हो कि यह अच्छा है या बुरा? हमारा शास्त्र कहता है कि यह सत्कार्य है।” यदि तुम कहो कि हमारा शास्त्र प्राचीन है, तो बौद्ध लोग कहेंगे कि उनका शास्त्र तुम्हारे से भी पुराना है और हिन्दू कहेंगे कि उनका शास्त्र सभी की अपेक्षा प्राचीनतम है। अतएव शास्त्र की दुहाई देने से काम नहीं चल सकता। वह प्रतिमान कहाँ है जिससे तुम अन्य सबकी तुलना कर सको? तुम कहोगे, ईसा का ‘शैलोपदेश’ देखो; मुसलमान कहेंगे, ‘क़ुरान का नीतिशास्त्र’ देखो। मुसलमान कहेंगे, इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है, इसका निर्णय कौन करेगा, कौन मध्यस्थ बनेगा? बाइबिल और क़ुरान में जब विवाद हो, तो यह निश्चय है कि उन दोनों में से तो कोई मध्यस्थ नहीं बन सकता। कोई स्वतंत्र व्यक्ति उनका मध्यस्थ हो तो अच्छा हो। यह कार्य किसी ग्रन्थ द्वारा नहीं हो सकता, किसी सार्वभौमिक तत्त्व द्वारा ही हो सकता है। बुद्धि से अधिक सार्वभौमिक पदार्थ और कोई नहीं है। कहा जाता है, बुद्धि पर्याप्त शक्तिसम्पन्न नहीं है, इससे सत्य की प्राप्ति में सदैव सहायता नहीं मिलती। प्रायः वह भूलें करती है, अतः हमें किसी न किसी धर्मसंघ की प्रामाणिकता में विश्वास करना चाहिए ऐसा मुझसे एकबार एक रोमन कैथलिक ने कहा था। किंतु मेरी समझ में यह युक्ति नहीं आयी। मैं कहूँगा कि यदि बुद्धि दुर्बल है, तो पुरोहित-सम्प्रदाय और भी दुर्बल होगे। मैं उन लोगों की बात सुनने की अपेक्षा बुद्धि की बात सुनना अधिक पसन्द करूँगा, क्योंकि, बुद्धि में चाहे जितना दोष क्यों न हो, उससे कुछ न कुछ सत्यलाभ की सम्भावना तो है, किन्तु दूसरी ओर तो किसी सत्य को पाने की आशा ही नहीं है। (८/४३)
१२. प्रश्न यह उठ सकता है कि यह विविधता किस प्रकार सत्य हो सकती है? एक चीज सत्य होने पर उसका विपरीत झूठ होगा। एक ही समय दो विरोधी मत किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? मैं इसी प्रश्न का उत्तर देना चाहता हूँ। उसके पहले मैं एक बात तुमसे पूछता हूँ कि पृथ्वी के धर्म क्या सचमुच परस्पर विरोधी हैं? मेरा आशय उन बाह्याचारों से नहीं है, जिनमें महान् विचार आवेष्टित हैं। मेरा आशय विविध धर्मों में व्यवहृत मन्दिर, भाषा, क्रियाकाण्ड, शास्त्र प्रभृति की विविधता से नहीं है, मैं प्रत्येक धर्म के भीतर की आत्मा की बात कहता हूँ। प्रत्येक धर्म के पीछे एक आत्मा है और एक धर्म की आत्मा अन्य धर्म की आत्मा से पृथक् हो सकती है; परन्तु इसलिए क्या वे परस्पर विरोधी हैं? वे परस्पर विरोधी हैं या एक दूसरे के पूरक हैं? यही प्रश्न है। मैं जब नितान्त बालक था, तभी से इस प्रश्न पर मैंने विचार आरम्भ किया है और सारे जीवन इस पर सोचता रहा हूँ। शायद मेरे निष्कर्षों से तुम्हारा कोई उपकार हो, इसी विचार से मैं उसे तुम्हारे निकट व्यक्त करता हूँ। मेरा विश्वास है कि वे परस्पर विरोधी नहीं हैं; वरन् परस्पर पूरक हैं। प्रत्येक धर्म मानो महान् सार्वभौमिक सत्य के एक एक अंश को मूर्तिमंत करके प्रस्फुटित करने के लिए अपनी समस्त शक्ति लगा देता है। इसलिए यह योगदान का विषय है – वर्जन का नहीं, यही समझना होगा। एक एक महान् भाव को लेकर सम्प्रदाय पर सम्प्रदाय गठित होते रहते हैं; आदर्श में आदर्श मिलते जाते हैं। इसी प्रकार मानवजाति उन्नति की ओर अग्रसर होती रहती है। मनुष्य कभी भ्रम से सत्य में उपनीत नहीं होता है, परन्तु सत्य से ही सत्य में गमन करता है; निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य पर आरूढ़ होता है – परन्तु भ्रम से सत्य में नहीं। (३/१२९-३०)
[१] प्रश्नोपनिषद ॥६।८॥