१. ईसाई धर्म के सबसे गम्भीर तथा उदात्त विचार यूरोप में कभी समझे नहीं गये, क्योंकि बाइबिल में उल्लिखित चिन्तन तथा कल्पनाएँ उनके लिए विजातीय थीं। (२/२३१)

२. ‘सतर्क रहो, प्रार्थना करो – कारण, भगवान् का राज्य अति निकट है।’ अर्थात् चित्तशुद्धि करके प्रस्तुत हो। और यह भाव कभी भी नष्ट नहीं हुआ। तुम लोगों को शायद स्मरण हो कि ईसाई लोग अज्ञानावस्था से ही, अति अन्धविश्वासग्रस्त ईसाई देशों में भी औरों की सहायता करने, चिकित्सालय आदि सत् कार्यों द्वारा अपने को पवित्र कर ईश्वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। जितने दिन तक वे इस लक्ष्य पर स्थिर रहेंगे, उतने दिन तक उनका धर्म जीवित रहेगा। (३/१३६-३७)

३. हिन्दू और ईसाई धर्म में जो प्रधान भेद है, वह केवल यही कि ईसाई धर्म कहता है कि इस संसार में जन्म के साथ ही मनुष्य की आत्मा का प्रारम्भ हुआ, और हिन्दू धर्म कहता है कि मानवात्मा उस सनातन परमात्मा की एक किरण मात्र है, अतः स्वयं ईश्वर की तरह उसका भी आदि नहीं। यह मानवात्मा देह से देहान्तर में संक्रमित हो रही है, इस प्रवास में वह कितने ही भिन्न भिन्न रूपों में व्यक्त हुई है एवं होगी। आध्यात्मिक विकास के उस महान् नियमानुसार वह अधिकाधिक अभिव्यक्त हो रही है, परन्तु जब वह सम्पूर्ण अभिव्यक्त हो जायगी, तब उसमें और अधिक परिणाम न होगा। (१/२५४)

४. प्रायः प्रत्येक धर्म में हम तीन मुख्य बातें देखते हैं, जिनके द्वारा परमेश्वर की पूजा की जाती है। वे हैं प्रतिमाएँ या प्रतीक, नाम और देवमानव। प्रत्येक धर्म में ये बातें हैं और फिर भी लोग एक दूसरे से लड़ना चाहते हैं। एक कहता है, “यदि संसार में कोई प्रतिमा सच्ची है, तो वह मेरे धर्म की; कोई नाम सच्चा है, तो मेरे धर्म का और कोई देव-मानव है, तो मेरे ही धर्म का। तम्हारे तो केवल कपोलकल्पित हैं।” इन दिनों ईसाई पादरी कुछ नरम हो गये हैं। वे मानने लगे हैं कि पुराने धर्मों के विभिन्न पूजा-प्रकार ईसाई धर्म के पूर्वाभास मात्र हैं, परन्तु फिर भी उनके मत से ईसाई धर्म ही सच्चा धर्म है। ईसाई उत्पन्न करने के पहले ईश्वर ने अपनी शक्तियाँ जाँच लीं, इन पूजा-पद्धतियों का निर्माण कर उसने अपने बलाबल को नापा और अन्त में ईसाई धर्म की उत्पत्ति हुई। उनका आजकल ऐसा कहना कुछ कम प्रगतिसूचक नहीं है। पचास वर्ष पूर्व तो वे लोग यह भी स्वीकार करने को तैयार न थे; उनके धर्म को छोड़कर और अन्य कुछ भी सत्य न था। यह भाव किसी धर्म, किसी एक राष्ट्र या किसी एक जाति का वैशिष्ट्य नहीं है; लोग तो हमेशा यही सोचते रहे हैं कि जो कुछ वे करते आये हैं, वही ठीक है और अन्य लोगों को भी वैसा ही आचरण करना चाहिए। विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन से हमें यहाँ बहुत सहायता मिलेगी। इस अध्ययन से यह मालूम हो जायगा कि जिन विचारों को हम अपने – केवल अपने – कहते आये हैं, वे सैकड़ों वर्ष पूर्व दूसरे लोगों के मन में विद्यमान थे, और कभी कभी तो उनका व्यक्त रूप हमारे अपने विचारों से कहीं अधिक अच्छा था। (३/२४७)

५. मूल में सभी धर्म समान हैं। सत्य तो यही है, यद्यपि ईसाई मत (Christian Church) आख्यायिका में वर्णित ‘फ़ैरिसी’ की तरह, ईश्वर को धन्यवाद देता है कि केवल उसीका धर्म सत्य है, और सोचता है कि अन्य सब धर्म असत्य हैं तथा उन्हें ईसाइयों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। इससे पहले कि संसार ईसाई मत के साथ उदारतापूर्वक सहयोग करे, ईसाई मत को सहिष्णु होना पड़ेगा। ईश्वर प्रत्येक हृदय में साक्षी के रूप में विद्यमान है, और लोगों को, विशेषतः ईसा मसीह के अनुयायियों को, तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। वास्तव में, ईसा मसीह तो प्रत्येक अच्छे मनुष्य को भगवान के परिवार में सम्मिलित कर लेना चाहते थे। (३/१७०)