१. साधना की पहली अवस्था में, भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होगा; फिर बाद में साधना में विशेष प्रगति हो जाने पर उतना सावधान न रहने से भी चलेगा। जब तक पौधा छोटा रहता है, तब तक उसे घेरकर रखते हैं, नहीं तो जानवर उसे चर जायँ। उसके बड़े वृक्ष हो जाने पर घेरा निकाल दिया जाता। तब वह सारे आघात झेलने के लिए पर्याप्त शक्त है। (१/४६)

२. भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम आवश्यक हैं। जिससे मन खूब पवित्र रहे, ऐसा भोजन करना चाहिए। (१/४६)

३. कुछ दूसरे प्रकार के आहार हैं, जिनका शरीर पर प्रभाव पड़ता है और प्रकारान्तर से वे मन पर भी अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। इससे हम बहुत बड़ा पाठ यह सीखते हैं कि हम जिन दुःखों को भोग रहे हैं, उनका अधिकांश हमारे खाये हुए आहार से ही प्रसूत होता है। अधिक मात्रा में तथा दुष्पाच्य भोजन के उपरान्त हम देखते हैं कि मन को वश में रखना कितना कठिन हो जाता है। (९/४)

४. केवल दिन-रात खाद्य और अखाद्य पर वाद-विवाद करके ही जीवन व्यतीत करना उचित है या वास्तव में इन्द्रिय-संयम करना आवश्यक है? अतएव हमें इन्द्रिय-संयम को ही मुख्य उद्देश्य मान लेना होगा; और उस इन्द्रिय-संयम के लिए ही भले-बुरे खाद्य-अखाद्य का थोड़ा-बहुत विचार करना होगा। (६/१४५)

५. शास्त्रों ने कहा है, खाद्य तीन प्रकार के दोषों से अपवित्र तथा त्याज्य होता है। (१) जाति दोष – जैसे प्याज, लहसुन आदि। (२) निमित्त दोष – जैसे हलवाई की दूकान की मिठाई, जिसमें कितनी ही मरी मक्खियाँ तथा रास्ते की धूल उड़कर पड़ी रहती है, आदि। (३) आश्रय दोष – जैसे बुरे व्यक्ति द्वारा छुआ हुआ अन्न आदि। जाति दोष अथवा निमित्त दोष से खाद्य युक्त है या नहीं, इस पर सभी समय विशेष दृष्टि रखनी चाहिए। (६/ १४५)

६. आरम्भिक दशा में साधक को आहार सम्बन्धी उन सब नियमों का विशेष रूप से पालन करना चाहिए, जो उसकी गुरु-परम्परा से चले आ रहे हैं। परन्तु आजकल हमारे अनेक सम्प्रदायों में इस आहारादि विचार की इतनी बढ़ा-चढ़ी है, अर्थहीन नियमों की इतनी पाबन्दी है कि उन सम्प्रदायों ने मानो धर्म को रसोईघर में ही सीमित कर रखा है। उस धर्म के महान् सत्य वहाँ से बाहर निकलकर कभी आध्यात्मिकता के सूर्यालोक में जगमगा सकेंगे, इसकी कोई सम्भावना नहीं। इस प्रकार का धर्म एक विशेष प्रकार का कोरा जड़वाद मात्र है। (४/३९)

७. तुमने मांसभोजी क्षत्रियों की बात उठायी है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खायँ या न खायँ, वे ही हिन्दू धर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं, जिनको तुम महत् और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किन्होंने लिखी थी? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणोंने कुछ लिखा, उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसीसे सुन लो। गीता में भक्ति की राह पर सभी नर-नारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या करने की चेष्टा करते हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी के प्रवाह में बाधा खड़ी हो जायगी? अगर वह ऐसा ही है, तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं! (२/३२८-२९)

८. जीव-हत्या निश्चय ही पाप है, किन्तु जब तक शाकाहार रसायन की प्रगति द्वारा मानव-प्रकृति के लिए उपयुक्त नहीं बन जाता, तब तक मांस-भक्षण के अतिरिक्त कोई चारा ही नहीं है। परिस्थितिवश जब तक मनुष्य राजसिक जीवन बिताने के लिए बाध्य है, तब तक उसे उसके लिए मांस-भक्षण करना ही पड़ेगा। यह सत्य है कि सम्राट् अशोक के दण्ड-भय से लाखों जानवरों की प्राण-रक्षा हुई थी, लेकिन हज़ारों वर्षों की गुलामी क्या उससे भयानक नहीं? इनमें से कौन अधिक पापपूर्ण है? – कुछ बकरियों की जान लेना या अपनी पत्नी-पुत्री की मर्यादा की रक्षा करने और आततायी हाथों द्वारा अपने बच्चों के मुख का ग्रास बचाने में असमर्थ होना? समाज के उन कुछ उच्चवर्गीय लोगों के, जो अपनी जीविका के लिए कोई भी शारीरिक श्रम नहीं करते, मांस न खाने में कोई आपत्ति नहीं, किन्तु उन अधिकांश लोगों पर, जो रात-दिन परिश्रम करके अपनी रोटी कमाते हैं, शाकाहार लादना ही हमारी राष्ट्रीय परतंत्रता का एक कारण हुआ है। (६/३१४)

९. देश के जिन सब लोगों को तू आज सत्त्वगुणी समझ रहा है, उनमें से पन्द्रह आने लोग तो घोर तमोगुणी हैं। एक आना सतोगुणी मनुष्य मिले तो बहुत हैं। अब चाहिए प्रबल रजोगुण की ताण्डव उद्दीपना। देश जो घोर तमसाच्छन्न है, देख नहीं रहा है? अब देश के लोगों को मछलीमांस खिलाकर उद्यमशील बना डालना होगा, जगाना होगा, कार्य तत्पर बनाना होगा; नहीं तो धीरे धीरे देश के सभी लोग जड़ बन जायँगे – पेड़-पत्थरों की तरह जड़ बन जायँगे। इसीलिए कह रहा था, मछली और मांस खूब खाना। (६/१४४-४५)

१०. मांस खाना अवश्य असभ्यता है। निरामिष भोजन ही पवित्र है। जिनका उद्देश्य धार्मिक जीवन है, उनके लिए निरामिष भोजन अच्छा है और जिसे रात-दिन परिश्रम करके प्रतिद्वन्द्विता के बीच में जीवन-नौका खेना है, उसे मांस खाना ही होगा। जितने दिन ‘बलवान की जय’ का भाव मानव समाज में रहेगा, उतने दिन मांस खाना ही पड़ेगा अथवा किसी दूसरे प्रकार की मांस जैसी उपयोगी चीज खाने के लिए ढूँढ़ निकालनी होगी। नहीं तो बलवानों के पैर के नीचे बलहीन पिस जायँगे। राम, श्याम निरामिष खाकर मजे में हैं, ऐसा कहने से नहीं चलेगा। एक जाति की दूसरी जाति से तुलना करके देखना होगा। (१०/७६)