१. प्रत्येक के भीतर अवस्थित सत्य तो वही एकमात्र, अनन्त, नित्यानन्दमय, नित्य शुद्ध, नित्य पूर्ण ब्रह्म है। वही यह आत्मा है। वह पुण्यशील, पापी, सुखी, दुःखी, सुन्दर, कुरूप, मनुष्य, पशु, सबमें समान रूप से वर्तमान है। वह ज्योतिर्मय है। (२/१७१)

२. यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि मैं अपने अस्तित्व – ‘मैं’ ‘मैं’, ‘मैं’ को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ? वेदों की घोषणा है – ‘नहीं’ मैं शरीर में रहनेवाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायगा, पर मैं नहीं मरूँगा। मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही। (१/८-९)

३. वेद कहते हैं कि समस्त संसार स्वतंत्रता और परतंत्रता का, मुक्ति एवं बन्धन का मिश्रण है, किन्तु इन सबके माध्यम से स्वतन्त्र, अमर, शुद्ध, पूर्ण और पवित्र आत्मा देदीप्यमान है। क्योंकि यदि वह स्वतन्त्र है, तो नष्ट नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु तो एक परिवर्तन मात्र ही है और कुछ स्थितियों पर निर्भर करती है; यदि वह स्वतंत्र है, तो वह पूर्ण अवश्य होगी, क्योंकि अपूर्णता भी तो एक स्थिति मात्र है और इसलिए वह परतंत्र है। और यह अमर और पूर्ण आत्मा सर्वोच्च ईश्वर से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र मानव में एक ही होनी चाहिए। उन दोनों के बीच का अन्तर केवल आत्मा की अभिव्यक्ति के परिमाण का अंतर होगा। (१/२५९)

४. यह बात नहीं कि ‘आत्मा को ज्ञान होता है’, वरन् वह तो ज्ञानस्वरूप है। यह नहीं कि आत्मा का अस्तित्व है, वरन् वह स्वयं अस्तित्वस्वरूप है। आत्मा सुखी है, ऐसी बात नहीं, आत्मा तो सुखस्वरूप है। जो सुखी होता है, वह उस सुख को किसी दूसरे से प्राप्त करता है – वह अन्य किसी का प्रतिबिम्ब है। जिसको ज्ञान है, उसने अवश्य उस ज्ञान को किसी दूसरे से प्राप्त किया है, वह ज्ञान प्रतिबिम्बस्वरूप है। जिसका अस्तित्व सापेक्ष है, उसका वह अस्तित्व दूसरे किसी के अस्तित्व पर निर्भर करता है। (२/१११-१२)

५. वही वस्तु जो आज हमें विश्व के रूप में दीख रही है, ईश्वर (परब्रह्म) दिखायी देगी और वही ईश्वर, जो इतने दीर्घ काल तक बाहर प्रतीत होता था, अब अन्तःस्थ, अपनी स्वयं आत्मा ही प्रतीत होगा। (१/२३९)

६. आत्मा में कोई भी विकार नहीं है – वह असीम, पूर्ण, शाश्वत और सच्चिदानन्द है। (९/९८)

७. आपातविरोधी सम्प्रदायों के बीच यदि कोई साधारण मत है, तो वह यही है कि आत्मा में पहले से ही महिमा, तेज और पवित्रता वर्तमान हैं। केवल रामानुज के मत में आत्मा कभी कभी संकुचित हो जाती है और कभी कभी विकसित, परन्तु शंकराचार्य के मतानुसार संकोच-विकास भ्रम मात्र है। इस मतभेद पर ध्यान मत दो। सभी तो यह स्वीकार करते हैं कि व्यक्त या अव्यक्त चाहे जिस भाव में रहे, वह शक्ति है जरूर। और जितनी शीघ्रता से उस पर विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा। (५/१७८)

८. स्वाधीनता की – मुक्ति की वह भावना, जो हम सबों में हुआ करती है, यह संकेत करती है कि हमारे अन्तराल में, शरीर और मन से परे भी कुछ और है। हमारी अन्तर्यामी आत्मा स्वरूपतः स्वाधीन है और वही हममें मुक्ति की इच्छा जाग्रत करती है। (१/२५६)

९. प्रत्येक जीवात्मा एक नक्षत्र है, और ये सब नक्षत्र ईश्वररूपी उस अनन्त निर्मल नील आकाश में विन्यस्त हैं। वही ईश्वर प्रत्येक जीवात्मा का मूलस्वरूप है, वही प्रत्येक का यथार्थ स्वरूप और वही प्रत्येक और सबका प्रकृत व्यक्तित्व है। इन जीवात्मा-रूप नक्षत्रों में से कुछ के, जो हमारी दृष्टिसीमा से परे चले गये हैं, अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तब समाप्त हुआ, जब हमने पाया कि उन सबकी अवस्थिति परमात्मा में ही है और हम भी उसीमें हैं। (३/३७६)

१०. अतएव जान लो कि तुम वही हो, और इसी साँचे में अपना जीवन ढालो। जो व्यक्ति इस तत्त्व को जानकर अपना सारा जीवन उसके अनुसार गठित करता है, वह फिर कभी अन्धकार में मारा मारा नहीं फिरता। (२/१३२)

११. आत्मा के विषय में यह सत्य पहले सुना जाता है। यदि तुमने इसे सुन लिया है, तो इस पर विचार करो। एक बार वह कर लिया है, तो इस पर ध्यान करो। व्यर्थ, निरर्थक तर्क मत करो! एक बार अपने को संतुष्ट कर लो कि तुम अनन्त आत्मा हो। यदि यह सत्य है, तो यह कहना मूर्खता है कि तुम शरीर हो, तुम आत्मा हो और उसकी अनुभूति प्राप्त की जानी चाहिए। आत्मा अपने को आत्मा के रूप में देखे। अभी आत्मा अपने को शरीर के रूप में देख रही है। इसका अंत होना चाहिए। जिस क्षण तुम यह अनुभव करने लगोगे, तुम मुक्त हो जाओगे। (३/१७८)

१२. जिस प्रकार हमें आँख के होने का ज्ञान उसके कार्यों द्वारा ही होता है, उसी प्रकार हम आत्मा को बिना उसके कार्यों के नहीं देख सकते। इसे इन्द्रियगम्य अनुभूति के निम्न स्तर पर नहीं लाया जा सकता। यह विश्व की प्रत्येक वस्तु का अधिष्ठान है, यद्यपि यह स्वयं अधिष्ठानरहित है। (८/ ११७)

१३. जो स्त्री पति से प्रेम करती है, वह पति के लिए नहीं है, किन्तु आत्मा के लिए ही स्त्री पति से प्रेम करती है; क्योंकि वह आत्मा से प्रेम करती है। स्त्री से स्त्री के लिए कोई प्रेम नहीं करता, पर क्योंकि वह आत्मा से प्रेम करता है, अतः स्त्री से प्रेम करता है। कोई सन्तान से सन्तान के लिए प्रेम नहीं करता, किन्तु वर आत्मा से प्रेम करता है, अतः सन्तान से प्रेम करता है। कोई भी अर्थ से अर्थ के लिए प्रेम नहीं करता किन्तु आत्मा से प्रेम करता है, अतः अर्थ से प्रेम करता है। कोई भी ब्राह्मण को ब्राह्मण के लिए प्रेम नहीं करता, किन्तु आत्मा से प्रेम करता है, इसलिए ही ब्राह्मण से प्रेम करता है। कोई भी इस जगत् को जगत् के लिए प्रेम नहीं करता, किन्तु वह आत्मा से प्रेम करता है, अतः उसको जगत् प्रिय है। इसी प्रकार कोई भी क्षत्रिय को क्षत्रिय के लिए प्रेम नहीं करता, वरन् वह आत्मा को प्रेम करता है। देवगण से कोई भी देवगण के लिए प्रेम नहीं करता, वरन् वह आत्मा से प्रेम करता है। अधिक क्या, किसी वस्तु से कोई उस वस्तु के लिए प्रेम नहीं करता, किन्तु उसके भीतर जो आत्मा विद्यमान है, उसके लिए ही वह उस वस्तु से प्रेम करता है। अतएव इस आत्मा के सम्बन्ध में श्रवण करना होगा, मनन करना होगा, निदिध्यासन करना होगा। (७/ १२५-२६)

१४. भीतर नित्य-शुद्ध-मुक्त आत्मारूपी सिंह विद्यमान है; ध्यान-धारणा करके उसका दर्शन पाते ही माया की दुनिया उड़ जाती है। (६/२२१)

१५. ‘अज्ञ लोग बिना समझे जिनकी उपासना करते हैं, मैं तुम्हारे निकट उन्हींका उपदेश करता हूँ।’

यह एक अद्वितीय ब्रह्म ही सभी ज्ञात वस्तुओं की अपेक्षा ‘ज्ञाततम’ है वहीं एक ऐसी वस्तु है, जिसे हम सर्वत्र देखते हैं। सभी अपनी आत्मा को जानते हैं, इतना ही नहीं, पशु भी जानता है कि मैं हूँ। हम जो कुछ जानते हैं, सब आत्मा का ही बहिःप्रसारण है, विस्तारस्वरूप है। (७/१०९१०)

१६. वह सत्यस्वरूप आत्मा इन इन्द्रियों से अत्यन्त परे है। दर्शनस्पर्शनादि की साधनभूत ये इन्द्रियाँ केवल बाह्य वस्तुओं को ही देखती हैं, लेकिन यह स्वयंभू आत्मा अन्तर्मुख होने पर ही देखी जा सकती है। यहाँ साधक के लिए किस गुण की आवश्यकता है, इसका तुम्हें स्मरण रहना चाहिए। वह है अपने नेत्रों को अन्तर्मुख कर आत्मा को जानने की अभिलाषा। (३/१६४)

१७. “जो असत्-कार्य करनेवाले हैं, जिनका मन शान्त नहीं है, वे इसे कभी नहीं पा सकते। जिनका हृदय पवित्र है, जिनका कार्य पवित्र है और जिनकी इन्द्रियाँ संयत हैं, उन्हीं के निकट यह आत्मा प्रकाशित होती है।” (२/१७२)

१८. ‘इस आत्मा को न कोई वाग्बल से प्राप्त कर सकता है, न बुद्धि-कौशल से और न अधिक शास्त्राध्ययन से।’ (५/२३५)

१९. यहाँ, वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग में, मर्त्य में, विभिन्न स्थानों में, अनेक उपायों से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था, वहीं अर्थात् अपनी आत्मा में ही हम एक चक्कर पूरा करके वापस आ जाते हैं और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत् में खोज करते फिर रहे थे, जिसके लिए हमने मन्दिरों और गिरजों में जा जा कातर होकर प्रार्थनाएँ कीं, आँसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघराशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त और रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है, प्राणों का प्राण है, हमारा शरीर है, हमारी आत्मा है – तुम्हीं ‘मैं’ हो, मैं ही ‘तुम’ हूँ। (२/१४)